Samaysar (Hindi).

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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
जीवस्य जीवरूपं विस्तरतो जानीहि लोकमात्रं खलु
ततः स किं हीनोऽधिको वा कथं करोति द्रव्यम् ।।३४३।।
अथ ज्ञायकस्तु भावो ज्ञानस्वभावेन तिष्ठतीति मतम्
तस्मान्नाप्यात्मात्मानं तु स्वयमात्मनः करोति ।।३४४।।
कर्मैवात्मानमज्ञानिनं करोति, ज्ञानावरणाख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः कर्मैव ज्ञानिनं
करोति, ज्ञानावरणाख्यकर्मक्षयोपशममन्तरेण तदनुपपत्तेः कर्मैव स्वापयति, निद्राख्यकर्मोदय-
मन्तरेण तदनुपपत्तेः कर्मैव जागरयति, निद्राख्यकर्मक्षयोपशममन्तरेण तदनुपपत्तेः कर्मैव
सुखयति, सद्वेद्याख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः कर्मैव दुःखयति, असद्वेद्याख्यकर्मोदयमन्तरेण
तदनुपपत्तेः कर्मैव मिथ्याद्रष्टिं करोति, मिथ्यात्वकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः कर्मैवासंयतं
अपि शक्यते ] नहीं किया जा सक ता; [विस्तरतः ] और विस्तारसे भी [जीवस्य जीवरूपं ] जीवका
जीवरूप [खलु ] निश्चयसे [लोकमात्रं जानीहि ] लोक मात्र जानो; [ततः ] उससे [किं सः हीनः
अधिकः वा ]
क्या वह हीन अथवा अधिक होता है ? [द्रव्यम् कथं करोति ] तब फि र (आत्मा)
द्रव्यको (अर्थात् द्रव्यरूप आत्माको) कैसे क रता है ?
[अथ ] अथवा यदि ‘[ज्ञायकः भावः तु ] ज्ञायक भाव तो [ज्ञानस्वभावेन तिष्ठति ] ज्ञान-
स्वभावसे स्थित रहता है’ [इति मतम् ] ऐसा माना जाये, [तस्मात् अपि] तो इससे भी [आत्मा स्वयं ]
आत्मा स्वयं [आत्मनः आत्मानं तु ] अपने आत्माको [न करोति ] नहीं करता यह सिद्ध होगा !
(इसप्रकार कर्तृत्वको सिद्ध करनेके लिये विवक्षाको बदलकर जो पक्ष कहा है, वह घटित
नहीं होता )
(इसप्रकार, यदि कर्मका कर्ता कर्म ही माना जाय तो स्याद्वादके साथ विरोध आता है;
इसलिये आत्माको अज्ञान-अवस्थामें कथंचित् अपने अज्ञानभावरूप कर्मका कर्ता मानना चाहिये,
जिससे स्याद्वादके साथ विरोध नहीं आता
)
टीका :(यहाँ पूर्वपक्ष इसप्रकार है :) ‘‘कर्म ही आत्माको अज्ञानी करता है,
क्योंकि ज्ञानावरण नामक कर्मके उदयके बिना उसकी (अज्ञानकी) अनुपपत्ति है; कर्म ही
(आत्माको) ज्ञानी करता है, क्योंकि ज्ञानावरण नामक कर्मके क्षयोपशमके बिना उसकी
अनुपपत्ति है; कर्म ही सुलाता है, क्योंकि निद्रा नामक कर्मके उदयके बिना उसकी अनुपपत्ति
है; कर्म ही जगाता है, क्योंकि निद्रा नामक कर्मके क्षयोपशमके बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म
ही सुखी करता है, क्योंकि सातावेदनीय नामक कर्मके उदयके बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म