कर्मैवात्मानमज्ञानिनं करोति, ज्ञानावरणाख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैव ज्ञानिनं करोति, ज्ञानावरणाख्यकर्मक्षयोपशममन्तरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैव स्वापयति, निद्राख्यकर्मोदय- मन्तरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैव जागरयति, निद्राख्यकर्मक्षयोपशममन्तरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैव सुखयति, सद्वेद्याख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैव दुःखयति, असद्वेद्याख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैव मिथ्याद्रष्टिं करोति, मिथ्यात्वकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैवासंयतं अपि शक्यते ] नहीं किया जा सक ता; [विस्तरतः ] और विस्तारसे भी [जीवस्य जीवरूपं ] जीवका जीवरूप [खलु ] निश्चयसे [लोकमात्रं जानीहि ] लोक मात्र जानो; [ततः ] उससे [किं सः हीनः अधिकः वा ] क्या वह हीन अथवा अधिक होता है ? [द्रव्यम् कथं करोति ] तब फि र (आत्मा) द्रव्यको (अर्थात् द्रव्यरूप आत्माको) कैसे क रता है ?
[अथ ] अथवा यदि ‘[ज्ञायकः भावः तु ] ज्ञायक भाव तो [ज्ञानस्वभावेन तिष्ठति ] ज्ञान- स्वभावसे स्थित रहता है’ [इति मतम् ] ऐसा माना जाये, [तस्मात् अपि] तो इससे भी [आत्मा स्वयं ] आत्मा स्वयं [आत्मनः आत्मानं तु ] अपने आत्माको [न करोति ] नहीं करता यह सिद्ध होगा !
(इसप्रकार कर्तृत्वको सिद्ध करनेके लिये विवक्षाको बदलकर जो पक्ष कहा है, वह घटित नहीं होता ।)
(इसप्रकार, यदि कर्मका कर्ता कर्म ही माना जाय तो स्याद्वादके साथ विरोध आता है; इसलिये आत्माको अज्ञान-अवस्थामें कथंचित् अपने अज्ञानभावरूप कर्मका कर्ता मानना चाहिये, जिससे स्याद्वादके साथ विरोध नहीं आता ।)
टीका : — (यहाँ पूर्वपक्ष इसप्रकार है :) ‘‘कर्म ही आत्माको अज्ञानी करता है, क्योंकि ज्ञानावरण नामक कर्मके उदयके बिना उसकी ( – अज्ञानकी) अनुपपत्ति है; कर्म ही (आत्माको) ज्ञानी करता है, क्योंकि ज्ञानावरण नामक कर्मके क्षयोपशमके बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म ही सुलाता है, क्योंकि निद्रा नामक कर्मके उदयके बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म ही जगाता है, क्योंकि निद्रा नामक कर्मके क्षयोपशमके बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म ही सुखी करता है, क्योंकि सातावेदनीय नामक कर्मके उदयके बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म