अन्यः करोति अन्यो वेदयते इति पश्यति स मिथ्याद्रष्टिरेव द्रष्टव्यः, क्षणिकत्वेऽपि वृत्त्यंशानां
इसप्रकार वस्तुके अंशमें वस्तुत्वका अध्यास करके शुद्धनयके लोभसे ऋजुसूत्रनयके एकान्तमें
रहकर जो यह देखता – मानता है कि ‘‘जो करता है वही नहीं भोगता, दूसरा करता है और दूसरा
क्षणिकत्व होने पर भी, वृत्तिमान (पर्यायमान) जो चैतन्यचमत्कार (आत्मा) है, वह तो टंकोत्कीर्ण
(नित्य) ही अन्तरंगमें प्रतिभासित होता है ।
भावार्थ : — वस्तुका स्वभाव जिनवाणीमें द्रव्यपर्यायस्वरूप कहा है; इसलिये स्याद्वादसे ऐसा अनेकान्त सिद्ध होता है कि पर्याय-अपेक्षासे तो वस्तु क्षणिक है और द्रव्य-अपेक्षासे नित्य है । जीव भी वस्तु होनेसे द्रव्यपर्यायस्वरूप है । इसलिये, पर्यायदृष्टिसे देखा जाय तो कार्यको करती है एक पर्याय, और भोगती है दूसरी पर्याय; जैसे कि — मनुष्यपर्यायने शुभाशुभ कर्म किये और उनका फल देवादिपर्यायने भोगा । यदि द्रव्यदृष्टिसे देखा जाय तो, जो करता है वही भोगता है; जैसे कि — मनुष्यपर्यायमें जिस जीवद्रव्यने शुभाशुभ कर्म किये, उसी जीवद्रव्यने देवादि पर्यायमें स्वयं किये गये कर्मके फलको भोगा ।
इसप्रकार वस्तुका स्वरूप अनेकान्तरूप सिद्ध होने पर भी, जो जीव शुद्धनयको समझे बिना शुद्धनयके लोभसे वस्तुके एक अंशको ( — वर्तमान कालमें वर्तती पर्यायको) ही वस्तु मानकर ऋजुसूत्रनयके विषयका एकान्त पकड़कर यह मानता है कि ‘जो करता है वही नहीं भोगता — अन्य भोगता है, और जो भोगता है वही नहीं करता — अन्य करता है, ’ वह जीव मिथ्यादृष्टि है, अरहन्तके मतका नहीं है; क्योंकि, पर्यायोंका क्षणिकत्व होने पर भी, द्रव्यरूप चैतन्यचमत्कार तो अनुभवगोचर नित्य है; प्रत्यभिज्ञानसे ज्ञात होता है कि ‘जो मैं बालक अवस्थामें था, वहीं मैं तरुण अवस्थामें था और वही मैं वृद्ध अवस्थामें हूँ ।’ इसप्रकार जो कथंचित् नित्यरूपसे अनुभवगोचर है — स्वसंवेदनमें आता है और जिसे जिनवाणी भी ऐसा ही कहती है, उसे जो नहीं मानता वह मिथ्यादृष्टि है, ऐसा समझना चाहिये ।।३४५ से ३४८।।