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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
(शार्दूलविक्रीडित)
आत्मानं परिशुद्धमीप्सुभिरतिव्याप्तिं प्रपद्यान्धकैः
कालोपाधिबलादशुद्धिमधिकां तत्रापि मत्वा परैः ।
चैतन्यं क्षणिकं प्रकल्प्य पृथुकैः शुद्धर्जुसूत्रे रतै-
रात्मा व्युज्झित एष हारवदहो निःसूत्रमुक्ते क्षिभिः ।।२०८।।
श्लोकार्थ : — [आत्मानं परिशुद्धम् ईप्सुभिः परैः अन्धकैः ] आत्माको सम्पूर्णतया शुद्ध
चाहनेवाले अन्य किन्हीं अन्धोंने — [पृथुकैः ] बालिशजनोंने (बौद्धोंने) — [काल-उपाधि-बलात्
अपि तत्र अधिकाम् अशुद्धिम् मत्वा ] कालकी उपाधिके कारण भी आत्मामें अधिक अशुद्धि
मानकर [अतिव्याप्तिं प्रपद्य ] अतिव्याप्तिको प्राप्त होकर, [शुद्ध-ऋजुसूत्रे रतैः ] शुद्ध ऋजुसूत्रनयमें
रत होते हुए [चैतन्यं क्षणिकं प्रकल्प्य ] चैतन्यको क्षणिक क ल्पित करके, [अहो एषः आत्मा
व्युज्झितः ] इस आत्माको छोड़ दिया; [निःसूत्र-मुक्ता-ईक्षिभिः हारवत् ] जैसे हारके सूत्र(डोरे)को
न देखकर मोतियोंको ही देखनेवाले हारको छोड़ देते हैं
।
भावार्थ : — आत्माको सम्पूर्णतया शुद्ध माननेके इच्छुक बौद्धोंने विचार किया कि — ‘‘यदि
आत्माको नित्य माना जाय तो नित्यमें कालकी अपेक्षा होती है, इसलिये उपाधि लग जायेगी; इसप्रकार
कालकी उपाधि लगनेसे आत्माको बहुत बड़ी अशुद्धि लग जायेगी और इससे अतिव्याप्ति दोष
लगेगा ।’’ इस दोषके भयसे उन्होंने शुद्ध ऋजुसूत्रनयका विषय जो वर्तमान समय है, उतना मात्र ( –
क्षणिक ही – ) आत्माको माना और उसे (आत्माको) नित्यनित्यास्वरूप नहीं माना । इसप्रकार
आत्माको सर्वथा क्षणिक माननेसे उन्हें नित्यानित्यस्वरूप — द्रव्यपर्यायस्वरूप सत्यार्थ आत्माकी
प्राप्ति नहीं हुई; मात्र क्षणिक पर्यायमें आत्माकी कल्पना हुई; किन्तु वह आत्मा सत्यार्थ नहीं है ।
मोतियोंके हारमें, डोरेमें अनेक मोती पिरोये होते हैं; जो मनुष्य उस हार नामक वस्तुको
मोतियों तथा डोरे सहित नहीं देखता — मात्र मोतियोंको ही देखता है, वह पृथक् पृथक् मोतियोंको
ही ग्रहण करता है, हारको छोड़ देता है; अर्थात् उसे हारकी प्राप्ति नहीं होती । इसीप्रकार जो जीव
आत्माके एक चैतन्यभावको ग्रहण नहीं करते और समय समय पर वर्तनापरिणामरूप उपयोगकी
प्रवृत्तिको देखकर आत्माको अनित्य कल्पित करके, ऋजुसूत्रनयका विषय जो वर्तमान-समयमात्र
क्षणिकत्व है, उतना मात्र ही आत्माको मानते हैं (अर्थात् जो जीव आत्माको द्रव्यपर्यायस्वरूप नहीं
मानते — मात्र क्षणिक पर्यायरूप ही मानते हैं ), वे आत्माको छोड़ देते हैं; अर्थात् उन्हें आत्माकी
प्राप्ति नहीं होती ।२०८।
अब, इस काव्यमें आत्मानुभव करनेको कहते हैं : —