कर्ता वेदयिता च मा भवतु वा वस्त्वेव संचिन्त्यताम् ।
च्चिच्चिन्तामणिमालिकेयमभितोऽप्येका चकास्त्वेव नः ।।२०९।।
कर्तृ कर्म च सदैकमिष्यते ।।२१०।।
श्लोकार्थ : — [कर्तुः च वेदयितुः युक्ति वशतः भेदः अस्तु वा अभेदः अपि ] क र्ताका और भोक्ताका युक्ति के वशसे भेद हो या अभेद हो, [वा कर्ता च वेदयिता मा भवतु ] अथवा क र्ता और भोक्ता दोनों न हों; [वस्तु एव संचिन्त्यताम् ] वस्तुका ही अनुभव करो । [निपुणैः सूत्रे इव इह आत्मनि प्रोता चित्-चिन्तामणि-मालिका क्वचित् भेत्तुं न शक्या ] जैसे चतुर पुरुषोंके द्वारा डोरेमें पिरोई गई मणियोंकी माला भेदी नहीं जा सकती, उसीप्रकार आत्मामें पिरोई गई चैतन्यरूप चिन्तामणिकी माला भी कभी किसीसे भेदी नहीं जा सकती; [इयम् एका ] ऐसी यह आत्मारूप माला एक ही, [नः अभितः अपि चकास्तु एव ] हमें समस्ततया प्रकाशमान हो (अर्थात् नित्यत्व, अनित्यत्व आदिके विक ल्प छूटकर हमें आत्माका निर्विक ल्प अनुभव हो)
भावार्थ : — आत्मा वस्तु होनेसे द्रव्यपर्यायात्मक है । इसलिये उसमें चैतन्यके परिणमनरूप पर्यायके भेदोंकी अपेक्षासे तो कर्ता-भोक्ताका भेद है और चिन्मात्रद्रव्यकी अपेक्षासे भेद नहीं है; इसप्रकार भेद-अभेद हो । अथवा चिन्मात्र अनुभवनमें भेद-अभेद क्यों कहना चाहिये ? (आत्माको) कर्ता-भोक्ता ही न कहना चाहिये, वस्तुमात्रका अनुभव करना चाहिये । जैसे मणियोंकी मालामें मणियोंकी और डोरेकी विवक्षासे भेद-अभेद है, परन्तु मालामात्रके ग्रहण करने पर भेदाभेद-विकल्प नहीं है, इसीप्रकार आत्मामें पर्यायोंकी और द्रव्यकी विवक्षासे भेद-अभेद है, परन्तु आत्मवस्तुमात्रका अनुभव करने पर विकल्प नहीं है । आचार्यदेव कहते हैं कि — ऐसा निर्विकल्प आत्माका अनुभव हमें प्रकाशमान हो ।२०९।
श्लोकार्थ : — [केवलं व्यावहारिकदृशा एव कर्तृ च कर्म विभिन्नम् इष्यते ] केवल व्यावहारिक दृष्टिसे ही क र्ता और क र्म भिन्न माने जाते हैं; [निश्चयेन यदि वस्तु चिन्त्यते ] यदि