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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
जह सिप्पिओ दु कम्मं कुव्वदि ण य सो दु तम्मओ होदि ।
तह जीवो वि य कम्मं कुव्वदि ण य तम्मओ होदि ।।३४९।।
जह सिप्पिओ दु करणेहिं कुव्वदि ण सो दु तम्मओ होदि ।
तह जीवो करणेहिं कुव्वदि ण य तम्मओ होदि ।।३५०।।
जह सिप्पिओ दु करणाणि गिण्हदि ण सो दु तम्मओ होदि ।
तह जीवो करणाणि दु गिण्हदि ण य तम्मओ होदि ।।३५१।।
जह सिप्पि दु कम्मफलं भुंजदि ण य सो दु तम्मओ होदि ।
तह जीवो कम्मफलं भुंजदि ण य तम्मओ होदि ।।३५२।।
एवं ववहारस्स दु वत्तव्वं दरिसणं समासेण ।
सुणु णिच्छयस्स वयणं परिणामक दं तु जं होदि ।।३५३।।
निश्चयसे वस्तुका विचार किया जाये, [कर्तृ च कर्म सदा एकम् इष्यते ] तो क र्ता और क र्म सदा
एक माना जाता है ।
भावार्थ : — मात्र व्यवहार-दृष्टिसे ही भिन्न द्रव्योंमें कर्तृत्व-कर्मत्व माना जाता है; निश्चय-
दृष्टिसे तो एक ही द्रव्यमें कर्तृत्व-कर्मत्व घटित होता है ।२१०।
अब, इस कथनको दृष्टान्त द्वारा गाथामें कहते हैं : —
ज्यों शिल्पि कर्म करे परन्तु वह नहीं तन्मय बने ।
त्यों कर्मको आत्मा करे पर वह नहीं तन्मय बने ।।३४९।।
ज्यों शिल्पि करणोंसे करे पर वह नहीं तन्मय बने ।
त्यों जीव करणोंसे करे पर वह नहीं तन्मय बने ।।३५०।।
ज्यों शिल्पि करण ग्रहे परन्तु वह नहीं तन्मय बने ।
त्यों जीव करणोंको ग्रहे पर वह नहीं तन्मय बने ।।३५१।।
शिल्पी करमफल भोगता, पर वह नहीं तन्मय बने ।
त्यों जीव करमफल भोगता, पर वह नहीं तन्मय बने ।।३५२।।
— इस भाँति मत व्यवहारका संक्षेपसे वक्तव्य है ।
सुन लो वचन परमार्थका, परिणामविषयक जो हि है ।।३५३।।