Samaysar (Hindi). Gatha: 9.

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मेष इवानिमेषोन्मेषितचक्षुः प्रेक्षत एव, यदा तु स एव व्यवहारपरमार्थपथप्रस्थापितसम्यग्बोध-
महारथरथिनान्येन तेनैव वा व्यवहारपथमास्थाय दर्शनज्ञानचारित्राण्यततीत्यात्मेत्यात्मपदस्याभिधेयं
प्रतिपाद्यते तदा सद्य एवोद्यदमंदानंदान्तःसुन्दरबन्धुरबोधतरंगस्तत्प्रतिपद्यत एव
एवं म्लेच्छ-
स्थानीयत्वाज्जगतो व्यवहारनयोऽपि म्लेच्छभाषास्थानीयत्वेन परमार्थप्रतिपादकत्वादुपन्यसनीयः अथ
च ब्राह्मणो न म्लेच्छितव्य इति वचनाद्वयवहारनयो नानुसर्तव्यः
कथं व्यवहारस्य प्रतिपादकत्वमिति चेत
जो हि सुदेणहिगच्छदि अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं
तं सुदकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पदीवयरा ।।९।।
२०
समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
क हने पर ‘आत्मा’ शब्दके अर्थका ज्ञान न होनेसे कुछ भी न समझकर मेंढेकी भांति आँखें
फाड़कर टकटकी लगाकर देखता रहता है, किन्तु जब व्यवहार-परमार्थ मार्ग पर सम्यग्ज्ञानरूपी
महारथको चलानेवाले सारथी समान अन्य कोई आचार्य अथवा ‘आत्मा’ शब्दको कहनेवाला
स्वयं ही व्यवहारमार्गमें रहता हुआ आत्मा शब्दका यह अर्थ बतलाता है कि
‘‘दर्शन, ज्ञान,
चारित्रको जो सदा प्राप्त हो वह आत्मा है’’, तब तत्काल ही उत्पन्न होनेवाले अत्यन्त आनन्दसे
जिसके हृदयमें सुन्दर बोधतरंगें (ज्ञानतरंगें) उछलने लगती हैं ऐसा वह व्यवहारीजन उस ‘आत्मा’
शब्दके अर्थको अच्छी तरह समझ लेता है
इसप्रकार जगत तो म्लेच्छके स्थान पर होनेसे, और
व्यवहारनय भी म्लेच्छभाषाके स्थान पर होनेसे परमार्थका प्रतिपादक (कहनेवाला) है इसलिये,
व्यवहारनय स्थापित करने योग्य है; किन्तु ब्राह्मणको म्लेच्छ नहीं हो जाना चाहिए
इस वचनसे
वह (व्यवहारनय) अनुसरण करने योग्य नहीं है
भावार्थ :लोग शुद्धनयको नहीं जानते, क्योंकि शुद्धनयका विषय अभेद एकरूप वस्तु
है; किन्तु वे अशुद्धनयको ही जानते हैं, क्योंकि उसका विषय भेदरूप अनेक प्रकार है; इसलिये
वे व्यवहारके द्वारा ही परमार्थको समझ सकते हैं
अतः व्यवहारनयको परमार्थका कहनेवाला
जानकर उसका उपदेश किया जाता है इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि यहाँ व्यवहारका
आलम्बन कराते हैं, प्रत्युत व्यवहारका आलम्बन छुड़ाकर परमार्थमें पहुँचाते हैं,यह समझना
चाहिये ।।८।।
अब, प्रश्न यह होता है कि व्यवहारनय परमार्थका प्रतिपादक कैसे है ? इसके उत्तरस्वरूप
गाथासूत्र कहते हैं :