जो सुदणाणं सव्वं जाणदि सुदकेवलिं तमाहु जिणा ।
णाणं अप्पा सव्वं जम्हा सुदकेवली तम्हा ।।१०।।
यो हि श्रुतेनाभिगच्छति आत्मानमिमं तु केवलं शुद्धम् ।
तं श्रुतकेवलिनमृषयो भणन्ति लोकप्रदीपकराः ।।९।।
यः श्रुतज्ञानं सर्वं जानाति श्रुतकेवलिनं तमाहुर्जिनाः ।
ज्ञानमात्मा सर्वं यस्माच्छ्रुतकेवली तस्मात् ।।१०।। युग्मम् ।
यः श्रुतेन केवलं शुद्धमात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीति तावत् परमार्थो; यः श्रुतज्ञानं
सर्वं जानाति स श्रुतकेवलीति तु व्यवहारः । तदत्र सर्वमेव तावत् ज्ञानं निरूप्यमाणं किमात्मा
किमनात्मा ? न तावदनात्मा, समस्तस्याप्यनात्मनश्चेतनेतरपदार्थपंचतयस्य ज्ञानतादात्म्यानुपपत्तेः ।
ततो गत्यन्तराभावात् ज्ञानमात्मेत्यायाति । अतः श्रुतज्ञानमप्यात्मैव स्यात् । एवं सति यः
कहानजैनशास्त्रमाला ]
पूर्वरंग
२१
इस आत्मको श्रुतसे नियत, जो शुद्ध केवल जानते ।
ऋषिगण प्रकाशक लोकके, श्रुतकेवली उसको कहें ।।९।।
श्रुतज्ञान सब जानें जु, जिन श्रुतकेवली उसको कहे ।
सब ज्ञान सो आत्मा हि है, श्रुतकेवली उससे बने ।।१०।।
गाथार्थ : — [यः ] जो जीव [हि ] निश्चयसे (वास्तवमें) [श्रुतेन तु ] श्रुतज्ञानके द्वारा
[इमं ] इस अनुभवगोचर [केवलं शुद्धम् ] केवल एक शुद्ध [आत्मानन् ] आत्माको
[अभिगच्छति ] सम्मुख होकर जानता है, [तं ] उसे [लोकप्रदीपकराः ] लोकको प्रगट जाननेवाले
[ऋषयः ] ऋषीश्वर [श्रुतकेवलिनम् ] श्रुतकेवली [भणन्ति ] कहते हैं; [यः ] जो जीव [सर्वं ]
सर्व [श्रुतज्ञानं ] श्रुतज्ञानको [जानाति ] जानता है; [तं ] उसे [जिनाः ] जिनदेव [श्रुतकेवलिनं ]
श्रुतकेवली [आहुः ] कहते हैं, [यस्मात् ] क्योंकि [ज्ञानं सर्वं ] ज्ञान सब [आत्मा ] आत्मा ही
है, [तस्मात् ] इसलिये [श्रुतकेवली ] (वह जीव) श्रुतकेवली है
।
टीका : — प्रथम, ‘‘जो श्रुतसे केवल शुद्ध आत्माको जानते हैं वे श्रुतकेवली हैं’’ वह तो
परमार्थ है; और ‘‘जो सर्व श्रुतज्ञानको जानते हैं वे श्रुतकेवली हैं’’ यह व्यवहार है । यहाँ दो पक्ष
लेकर परीक्षा करते हैं : — उपरोक्त सर्व ज्ञान आत्मा है या अनात्मा ? यदि अनात्माका पक्ष लिया
जाये तो वह ठीक नहीं है, क्योंकि जो समस्त जड़रूप अनात्मा आकाशादिक पांच द्रव्य हैं, उनका