यः श्रुतेन केवलं शुद्धमात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीति तावत् परमार्थो; यः श्रुतज्ञानं सर्वं जानाति स श्रुतकेवलीति तु व्यवहारः । तदत्र सर्वमेव तावत् ज्ञानं निरूप्यमाणं किमात्मा किमनात्मा ? न तावदनात्मा, समस्तस्याप्यनात्मनश्चेतनेतरपदार्थपंचतयस्य ज्ञानतादात्म्यानुपपत्तेः । ततो गत्यन्तराभावात् ज्ञानमात्मेत्यायाति । अतः श्रुतज्ञानमप्यात्मैव स्यात् । एवं सति यः
गाथार्थ : — [यः ] जो जीव [हि ] निश्चयसे (वास्तवमें) [श्रुतेन तु ] श्रुतज्ञानके द्वारा [इमं ] इस अनुभवगोचर [केवलं शुद्धम् ] केवल एक शुद्ध [आत्मानन् ] आत्माको [अभिगच्छति ] सम्मुख होकर जानता है, [तं ] उसे [लोकप्रदीपकराः ] लोकको प्रगट जाननेवाले [ऋषयः ] ऋषीश्वर [श्रुतकेवलिनम् ] श्रुतकेवली [भणन्ति ] कहते हैं; [यः ] जो जीव [सर्वं ] सर्व [श्रुतज्ञानं ] श्रुतज्ञानको [जानाति ] जानता है; [तं ] उसे [जिनाः ] जिनदेव [श्रुतकेवलिनं ] श्रुतकेवली [आहुः ] कहते हैं, [यस्मात् ] क्योंकि [ज्ञानं सर्वं ] ज्ञान सब [आत्मा ] आत्मा ही है, [तस्मात् ] इसलिये [श्रुतकेवली ] (वह जीव) श्रुतकेवली है
टीका : — प्रथम, ‘‘जो श्रुतसे केवल शुद्ध आत्माको जानते हैं वे श्रुतकेवली हैं’’ वह तो परमार्थ है; और ‘‘जो सर्व श्रुतज्ञानको जानते हैं वे श्रुतकेवली हैं’’ यह व्यवहार है । यहाँ दो पक्ष लेकर परीक्षा करते हैं : — उपरोक्त सर्व ज्ञान आत्मा है या अनात्मा ? यदि अनात्माका पक्ष लिया जाये तो वह ठीक नहीं है, क्योंकि जो समस्त जड़रूप अनात्मा आकाशादिक पांच द्रव्य हैं, उनका