आत्मानं जानाति स श्रुतकेवलीत्यायाति, स तु परमार्थ एव । एवं ज्ञानज्ञानिनोर्भेदेन व्यपदिशता
व्यवहारेणापि परमार्थमात्रमेव प्रतिपाद्यते, न किंचिदप्यतिरिक्तम्। अथ च यः श्रुतेन केवलं
शुद्धमात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीति परमार्थस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वाद्यः श्रुतज्ञानं सर्वं जानाति स श्रुतकेवलीति व्यवहारः परमार्थप्रतिपादकत्वेनात्मानं प्रतिष्ठापयति ।
कुतो व्यवहारनयो नानुसर्तव्य इति चेत् —
ववहारोऽभूदत्थो भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ ।
भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो ।।११।।
ज्ञानके साथ तादात्म्य बनता ही नहीं (क्योंकि उनमें ज्ञान सिद्ध नहीं है) । इसलिये अन्य पक्षका
अभाव होनेसे ‘ज्ञान आत्मा ही है’ यह पक्ष सिद्ध हुआ । इसलिये श्रुतज्ञान भी आत्मा ही है । ऐसा
होनेसे ‘जो आत्माको जानता है, वह श्रुतकेवली है’ ऐसा ही घटित होता है; और वह तो परमार्थ ही है । इसप्रकार ज्ञान और ज्ञानीके भेदसे कहनेवाला जो व्यवहार है उससे भी परमार्थ मात्र ही
कहा जाता है, उससे भिन्न कुछ नहीं कहा जाता । और ‘‘जो श्रुतसे केवल शुद्ध आत्माको जानते
हैं वे श्रुतकेवली हैं’’ ऐसे परमार्थका प्रतिपादन करना अशक्य होनेसे, ‘‘जो सर्व श्रुतज्ञानको जानते हैं वे श्रुतकेवली हैं’’ ऐसा व्यवहार परमार्थके प्रतिपादकत्वसे अपनेको दृढ़तापूर्वक स्थापित करता है ।
भावार्थ : — जो श्रुतज्ञानसे अभेदरूप ज्ञायकमात्र शुद्ध आत्माको जानता है वह श्रुतकेवलीहै, यह तो परमार्थ (निश्चय कथन) है । और जो सर्व श्रुतज्ञानको जानता है उसने भी ज्ञानकोजाननेसे आत्माको ही जाना है, क्योंकि जो ज्ञान है वह आत्मा ही है; इसलिये ज्ञान-ज्ञानीके भेदको कहनेवाला जो व्यवहार उसने भी परमार्थ ही कहा है, अन्य कुछ नहीं कहा । और परमार्थका विषयतो कथंचित् वचनगोचर भी नहीं है, इसलिये व्यवहारनय ही आत्माको प्रगटरूपसे कहता है, ऐसा जानना चाहिए ।।९-१०।।
अब, यह प्रश्न उपस्थित होता है कि — पहले यह कहा था कि व्यवहारको अङ्गीकार नहींकरना चाहिए, किन्तु यदि वह परमार्थको कहनेवाला है तो ऐसे व्यवहारको क्यों अङ्गीकार न किया जाये ? इसके उत्तररूपमें गाथासूत्र कहते हैं : —
व्यवहारनय अभूतार्थ दर्शित, शुद्धनय भूतार्थ है ।
भूतार्थ आश्रित आत्मा, सद्दृष्टि निश्चय होय है ।।११।।