व्यवहारनयो हि सर्व एवाभूतार्थत्वादभूतमर्थं प्रद्योतयति, शुद्धनय एक एव भूतार्थत्वात् भूतमर्थं प्रद्योतयति । तथा हि — यथा प्रबलपंक संवलनतिरोहितसहजैकाच्छभावस्य पयसोऽनुभवितारः पुरुषाः पंक पयसोर्विवेकमकुर्वन्तो बहवोऽनच्छमेव तदनुभवन्ति; केचित्तु स्वकरविकीर्णक तकनिपातमात्रोपजनितपंक पयोविवेकतया स्वपुरुषकाराविर्भावितसहजैकाच्छ- भावत्वादच्छमेव तदनुभवन्ति; तथा प्रबलकर्मसंवलनतिरोहितसहजैकज्ञायकभावस्यात्मनोऽनुभवितारः पुरुषा आत्मकर्मणोर्विवेकमकुर्वन्तो व्यवहारविमोहितहृदयाः प्रद्योतमानभाववैश्वरूप्यं तमनुभवन्ति; भूतार्थदर्शिनस्तु स्वमतिनिपातितशुद्धनयानुबोधमात्रोपजनितात्मकर्मविवेकतया स्वपुरुषकारा-
गाथार्थ : — [व्यवहारः ] व्यवहारनय [अभूतार्थः ] अभूतार्थ है [तु ] और [शुद्धनयः ] शुद्धनय [भूतार्थः ] भूतार्थ है, ऐसा [दर्शितः ] ऋषीश्वरोंने बताया है; [जीवः ] जो जीव [भूतार्थं ] भूतार्थका [आश्रितः ] आश्रय लेता है वह जीव [खलु ] निश्चयसे (वास्तवमें) [सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [भवति ] है ।
टीका : — व्यवहारनय सब ही अभूतार्थ है, इसलिये वह अविद्यमान, असत्य, अभूत अर्थको प्रगट करता है; शुद्धनय एक ही भूतार्थ होनेसे विद्यमान, सत्य, भूत अर्थको प्रगट करता है । यह बात दृष्टान्तसे बतलाते हैं : — जैसे प्रबल कीचड़के मिलनेसे जिसका सहज एक निर्मलभाव तिरोभूत (आच्छादित) हो गया है, ऐसे जलका अनुभव करनेवाले पुरुष — जल और कीचड़का विवेक न करनेवाले (दोनोंके भेदको न समझनेवाले) — बहुतसे तो उस जलको मलिन ही अनुभवते हैं, किन्तु कितने ही अपने हाथसे डाले हुवे १कतकफलके पड़ने मात्रसे उत्पन्न जल-कादवकी विवेकतासे, अपने पुरुषार्थ द्वारा आविर्भूत किये गये सहज एक निर्मलभावपनेसे, उस जलको निर्मल ही अनुभव करते हैं; इसीप्रकार प्रबल कर्मोंके मिलनेसे, जिसका सहज एक ज्ञायकभाव तिरोभूत हो गया है, ऐसे आत्माका अनुभव करनेवाले पुरुष — आत्मा और कर्मका विवेक (भेद) न करनेवाले, व्यवहारसे विमोहित हृदयवाले तो, उसे (आत्माको) जिसमें भावोंकी विश्वरूपता (अनेकरूपता) प्रगट है ऐसा अनुभव करते हैं; किन्तु भूतार्थदर्शी (शुद्धनयको देखनेवाले) अपनी बुद्धिसे डाले हुवे शुद्धनयके अनुसार बोध होनेमात्रसे उत्पन्न आत्म-कर्मकी विवेकतासे, अपने पुरुषार्थ द्वारा आविर्भूत किये गये सहज एक १. कतकफल=निर्मली; (एक औषधि जिससे कीचड़ नीचे बैठ जाता है) ।