येन तेन खलु वस्तु वस्तु तत् ।
किं करोति हि बहिर्लुठन्नपि ।।२१३।।
सकलम् एव वस्तु स्वभाव-नियतम् इष्यते ] क्योंकि समस्त वस्तुएँ अपने अपने स्वभावमें निश्चित
हैं, ऐसा माना जाता है । (आचार्यदेव क हते हैं कि – ) [इह ] ऐसा होने पर भी, [मोहितः ] मोहित
क्लिश्यते ] क्यों क्लेश पाता है ?
भावार्थ : — वस्तुस्वभाव तो नियमसे ऐसा है कि किसी वस्तुमें कोई वस्तु नहीं मिलती । ऐसा होने पर भी, यह मोही प्राणी, ‘परज्ञेयोंके साथ अपनेको पारमार्थिक सम्बन्ध है’ ऐसा मानकर, क्लेश पाता है, यह महा अज्ञान है ।२१२।
श्लोकार्थ : — [इह च ] इस लोक में [येन एकम् वस्तु अन्यवस्तुनः न ] एक वस्तु अन्य वस्तुकी नहीं है, [तेन खलु वस्तु तत् वस्तु ] इसलिये वास्तवमें वस्तु वस्तु ही है — [अयम् निश्चयः ] यह निश्चय है । [कः अपरः ] ऐसा होनेसे कोई अन्य वस्तु [अपरस्य बहिः लुठन् अपि हि ] अन्य वस्तुके बाहर लोटती हुई भी [किं करोति ] उसका क्या कर सकती है ?
भावार्थ : — वस्तुका स्वभाव तो ऐसा है कि एक वस्तु अन्य वस्तुको नहीं बदला सकती । यदि ऐसा न हो तो वस्तुका वस्तुत्व ही न रहे । इसप्रकार जहाँ एक वस्तु अन्यको परिणमित नहीं कर सकती, वहाँ एक वस्तुने अन्यका क्या किया ? कुछ नहीं । चेतन-वस्तुके साथ पुद्गल एकक्षेत्रावगाहरूपसे रह रहे हैं तथापि वे चेतनको जड़ बनाकर अपनेरूपमें परिणमित नहीं कर सके; तब फि र पुद्गलने चेतनका क्या किया ? कुछ भी नहीं ।
इससे यह समझना चाहिए कि — व्यवहारसे परद्रव्योंका और आत्माका ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध होने पर भी परद्रव्य ज्ञायकका कुछ भी नहीं कर सकते और ज्ञायक परद्रव्यका कुछ भी नहीं कर सकता ।२१३।