५००
समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
भुंक्ते च, एकद्रव्यत्वेन ततोऽनन्यत्वे सति तन्मयश्च भवति; ततः परिणामपरिणामिभावेन तत्रैव
कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वनिश्चयः ।
(नर्दटक)
ननु परिणाम एव किल कर्म विनिश्चयतः
स भवति नापरस्य परिणामिन एव भवेत् ।
न भवति कर्तृशून्यमिह कर्म न चैकतया
स्थितिरिह वस्तुनो भवतु कर्तृ तदेव ततः ।।२११।।
(पृथ्वी)
बहिर्लुठति यद्यपि स्फु टदनन्तशक्ति : स्वयं
तथाप्यपरवस्तुनो विशति नान्यवस्त्वन्तरम् ।
स्वभावनियतं यतः सकलमेव वस्त्विष्यते
स्वभावचलनाकुलः किमिह मोहितः क्लिश्यते ।।२१२।।
है तथा दुःखस्वरूप ऐसा जो चेष्टारूप कर्मका आत्मपरिणामात्मक फल उसको भोगता है, और
एकद्रव्यत्वके कारण उनसे अनन्य होनेसे तन्मय है; इसलिये परिणाम-परिणामीभावसे वहीं कर्ता-
कर्मपनका और भोक्ता-भोग्यपनका निश्चय है ।।३४९ से ३५५।।
अब, इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [ननु परिणाम एव किल विनिश्चयतः कर्म ] वास्तवमें परिणाम ही
निश्चयसे क र्म है, और [सः परिणामिन एव भवेत्, अपरस्य न भवति ] परिणाम अपने
आश्रयभूत परिणामीका ही होता है, अन्यका नहीं (क्योंकि परिणाम अपने अपने द्रव्यके आश्रित
हैं, अन्यके परिणामका अन्य आश्रय नहीं होता); [इह कर्म कर्तृशून्यम् न भवति ] और क र्म
क र्ताके बिना नहीं होता, [च वस्तुनः एकतया स्थितिः इह न ] तथा वस्तुकी एकरूप
(कूटस्थ) स्थिति नहीं होती (क्योंकि वस्तु द्रव्यपर्यायस्वरूप होनेसे सर्वथा नित्यत्व बाधासहित
है); [ततः तद् एव कर्तृ भवतु ] इसलिये वस्तु स्वयं ही अपने परिणामरूप क र्मकी क र्ता है
( – यह निश्चयसिद्धांत है)
।२११।
अब, आगेकी गाथाओंका सूचक काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [स्वयं स्फु टत्-अनन्त-शक्ति : ] जिसको स्वयं अनंत शक्ति प्रकाशमान है,
ऐसी वस्तु [बहिः यद्यपि लुठति ] अन्य वस्तुके बाहर यद्यपि लोटती है [तथापि अन्य-वस्तु