Samaysar (Hindi).

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कहानजैनशास्त्रमाला ]
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
४९९
हस्तकुट्टकादिभिः परद्रव्यपरिणामात्मकैः करणैः करोति, हस्तकुट्टकादीनि परद्रव्यपरिणामात्मकानि
करणानि गृह्णाति, ग्रामादिपरद्रव्यपरिणामात्मकं कुण्डलादिकर्मफलं भुंक्ते च, नत्वनेकद्रव्यत्वेन
ततोऽन्यत्वे सति तन्मयो भवति; ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेणैव तत्र कर्तृकर्मभोक्तृ-
भोग्यत्वव्यवहारः; तथात्मापि पुण्यपापादि पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकं कर्म करोति, कायवाङ्मनोभिः
पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकैः करणैः करोति, कायवाङ्मनांसि पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकानि करणानि
गृह्णाति, सुखदुःखादि पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकं पुण्यपापादिकर्मफलं भुंक्ते च, न त्वनेकद्रव्यत्वेन
ततोऽन्यत्वे सति तन्मयो भवति; ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेणैव तत्र
कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वव्यवहारः
यथा च स एव शिल्पी चिकीर्षुश्चेष्टारूपमात्मपरिणामात्मकं कर्म
करोति, दुःखलक्षणमात्मपरिणामात्मकं चेष्टारूपकर्मफलं भुंक्ते च, एकद्रव्यत्वेन ततोऽनन्यत्वे सति
तन्मयश्च भवति; ततः परिणामपरिणामिभावेन तत्रैव कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वनिश्चयः; तथात्मापि
चिकीर्षुश्चेष्टारूपमात्मपरिणामात्मकं कर्म करोति, दुःखलक्षणमात्मपरिणामात्मकं चेष्टारूपकर्मफलं
हथौड़ा आदि परद्रव्यपरिणामात्मक करणोंको ग्रहण करता है और कुण्डल आदि कर्मका जो ग्रामादि
परद्रव्यपरिणामात्मक फल भोगता है, किन्तु अनेकद्रव्यत्वके कारण उनसे (कर्म, करण आदिसे)
अन्य होनेसे तन्मय (कर्मकरणादिमय) नहीं होता; इसलिये निमित्त-नैमित्तिकभावमात्रसे ही वहाँ
कर्तृकर्मत्वका और भोक्तृभोग्यत्वका व्यवहार है; इसीप्रकार
आत्मा भी पुण्यपापादि जो
पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मक (पुद्गलद्रव्यके परिणामस्वरूप) कर्म उसको करता है, काय-वचन-
मनरूप जो पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मक करण उनके द्वारा करता है, काय-वचन-मनरूप जो
पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मक करण उनको ग्रहण करता है और पुण्यपापादि कर्मका जो सुख-दुःखादि
पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मक फल उसको भोगता है, परंतु अनेकद्रव्यत्वके कारण उनसे अन्य होनेसे
तन्मय नहीं होता; इसलिये निमित्त-नैमित्तिकभावमात्रसे ही वहाँ कर्तृ-कर्मत्वका और भोक्तृ-
भोग्यत्वका व्यवहार है
और जैसेवही शिल्पी, करनेका इच्छुक होता हुआ, चेष्टारूप (अर्थात् कुण्डलादि
करनेके अपने परिणामरूप और हस्तादिके व्यापाररूप) ऐसा जो स्वपरिणामात्मक कर्म उसको
करता है, तथा दुःखस्वरूप ऐसा जो चेष्टारूप कर्मका स्वपरिणामात्मक फल उसको भोगता है
और एकद्रव्यत्वके कारण उनसे (कर्म और कर्मफलसे) अनन्य होनेसे तन्मय (कर्ममय और
कर्मफलमय) है; इसलिये परिणाम-परिणामीभावसे वहीं कर्ता-कर्मपनका और भोक्ता
-भोग्यपनका निश्चय है; उसीप्रकार
आत्मा भी, करनेका इच्छुक होता हुआ, चेष्टारूप
(रागादिपरिणामरूप और प्रदेशोंके व्यापाररूप) ऐसा जो आत्मपरिणामात्मक कर्म उसको करता