न च जीवस्य परद्रव्यं रागादीनुत्पादयतीति शंक्यम्; अन्यद्रव्येणान्यद्रव्यगुणोत्पाद- करणस्यायोगात्; सर्वद्रव्याणां स्वभावेनैवोत्पादात् । तथा हि — मृत्तिका कुम्भभावेनोत्पद्यमाना किं कुम्भकारस्वभावेनोत्पद्यते, किं मृत्तिकास्वभावेन ? यदि कुम्भकारस्वभावेनोत्पद्यते तदा कुम्भकरणाहंकारनिर्भरपुरुषाधिष्ठितव्यापृतकरपुरुषशरीराकारः कुम्भः स्यात् । न च तथास्ति,
भावार्थ : — राग-द्वेष चेतनके ही परिणाम हैं। अन्य द्रव्य आत्माको राग-द्वेष उत्पन्न नहीं करा सकता; क्योंकि सर्व द्रव्योंकी उत्पत्ति अपने अपने स्वभावसे ही होती है, अन्य द्रव्यमें अन्य द्रव्यके गुणपर्यायोंकी उत्पत्ति नहीं होती।।२१९।।
गाथार्थ : — [अन्यद्रव्येण ] अन्य द्रव्यसे [अन्यद्रव्यस्य ] अन्य द्रव्यके [गुणोत्पादः ] गुणकी उत्पत्ति [न क्रियते ] नहीं की जा सकती; [तस्मात् तु ] इससे (यह सिद्धान्त हुआ कि) [सर्वद्रव्याणि ] सर्व द्रव्य [स्वभावेन ] अपने अपने स्वभावसे [उत्पद्यंते ] उत्पन्न होते हैं।
टीका : — और भी ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये कि – परद्रव्य जीवको रागादि उत्पन्न करते हैं; क्योंकि अन्य द्रव्यके द्वारा अन्य द्रव्यके गुणोंको उत्पन्न करनेकी अयोग्यता है; क्योंकि सर्व द्रव्योंका स्वभावसे ही उत्पाद होता है। यह बात दृष्टान्तपूर्वक समझाई जा रही है : —
मिट्टी घटभावरूपसे उत्पन्न होती हुई कुम्हारके स्वभावसे उत्पन्न होती है या मिट्टीके ? यदि कुम्हारके स्वभावसे उत्पन्न होती हो तो जिसमें घटको बनानेके अहंकारसे भरा हुआ पुरुष विद्यमान है और जिसका हाथ (घड़ा बनानेका) व्यापार करता है, ऐसे पुरुषके शरीराकार घट होना चाहिये। परन्तु ऐसा तो नहीं होता, क्योंकि अन्यद्रव्यके स्वभावसे किसी द्रव्यके परिणामका उत्पाद देखनेमें नहीं आता। यदि ऐसा है तो फि र मिट्टी कुम्हारके