Samaysar (Hindi). Kalash: 218-219.

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कहानजैनशास्त्रमाला ]
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
५२१
(मन्दाक्रान्ता)
रागद्वेषाविह हि भवति ज्ञानमज्ञानभावात्
तौ वस्तुत्वप्रणिहित
द्रशा द्रश्यमानौ न किंचित्
सम्यग्द्रष्टिः क्षपयतु ततस्तत्त्वद्रष्टया स्फु टं तौ
ज्ञानज्योतिर्ज्वलति सहजं येन पूर्णाचलार्चिः ।।२१८।।
(शालिनी)
रागद्वेषोत्पादकं तत्त्वद्रष्टया
नान्यद्द्रव्यं वीक्ष्यते किंचनापि
सर्वद्रव्योत्पत्तिरन्तश्चकास्ति
व्यक्तात्यन्तं स्वस्वभावेन यस्मात्
।।२१९।।
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अब, इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[इह ज्ञानम् हि अज्ञानभावात् राग-द्वेषौ भवति ] इस जगतमें ज्ञान ही
अज्ञानभावसे रागद्वेषरूप परिणमित होता है; [वस्तुत्व-प्रणिहित-दशा दृश्यमानौ तो किंचित् न ]
वस्तुत्वमें स्थापित (
एकाग्र की गई) दृष्टिसे देखने पर (अर्थात् द्रव्यदृष्टिसे देखने पर), वे राग
-द्वेष कुछ भी नहीं हैं (द्रव्यरूप पृथक् वस्तु नहीं हैं) [ततः सम्यग्दृष्टिः तत्त्वदृष्टया तौ स्फु टं
क्षपयतु ] इसलिये (आचार्यदेव प्रेरणा करते हैं कि) सम्यग्दृष्टि पुरुष तत्त्वदृष्टिसे उन्हें (राग-द्वेषको)
स्पष्टतया क्षय करो, [येन पूर्ण-अचल-अर्चिः सहजं ज्ञानज्योतिः ज्वलति ] कि जिससे, पूर्ण और
अचल जिसका प्रकाश है ऐसी (दैदीप्यमान) सहज ज्ञानज्योति प्रकाशित हो
भावार्थ :राग-द्वेष कोई पृथक् द्रव्य नहीं है, वे (राग-द्वेषरूप परिणाम) जीवके
अज्ञानभावसे होते हैं; इसलिये सम्यग्दृष्टि होकर तत्त्वदृष्टिसे देखा जाये तो वे (राग-द्वेष) कुछ भी
वस्तु नहीं हैं ऐसा दिखाई देता है, और घातिकर्मोंका नाश होकर केवलज्ञान उत्पन्न होता है
।।२१८।।
अब, आगेकी गाथामें यह कहेंगे कि ‘अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यको गुण उत्पन्न नहीं कर
सकता’ इसका सूचक काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[तत्त्वदृष्टया ] तत्त्वदृष्टिसे देखा जाये तो, [राग-द्वेष-उत्पादकं अन्यत् द्रव्यं
किंचन अपि न वीक्ष्यते ] राग-द्वेषको उत्पन्न करनेवाला अन्य द्रव्य किंचित्मात्र भी दिखाई नहीं
देता, [यस्मात् सर्व-द्रव्य-उत्पत्तिः स्वस्वभावेन अन्तः अत्यन्तं व्यक्ता चकास्ति ] क्योंकि सर्व
द्रव्योंकी उत्पत्ति अपने स्वभावसे ही होती हुई अन्तरंगमें अत्यन्त प्रगट (स्पष्ट) प्रकाशित होती है