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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
(मालिनी)
यदिह भवति रागद्वेषदोषप्रसूतिः
कतरदपि परेषां दूषणं नास्ति तत्र ।
स्वयमयमपराधी तत्र सर्पत्यबोधो
भवतु विदितमस्तं यात्वबोधोऽस्मि बोधः ।।२२०।।
इसलिये (आचार्यदेव कहते हैं कि) हम जीवके रागादिका उत्पादक परद्रव्यको नहीं
देखते ( – मानते) कि जिस पर कोप करें।
भावार्थ : — आत्माको रागादि उत्पन्न होते हैं सो वे अपने ही अशुद्ध परिणाम हैं।
यदि निश्चयनयसे विचार किया जाये तो अन्यद्रव्य रागादिका उत्पन्न करनेवाला नहीं है,
अन्यद्रव्य उनका निमित्तमात्र है; क्योंकि अन्य द्रव्यके अन्य द्रव्य गुणपर्याय उत्पन्न नहीं
करता, यह नियम है। जो यह मानते हैं – ऐसा एकान्त ग्रहण करते हैं कि – ‘परद्रव्य ही मुझमें
रागादिक उत्पन्न करते हैं’, वे नयविभागको नहीं समझते, वे मिथ्यादृष्टि हैं। यह रागादिक
जीवके सत्त्वमें उत्पन्न होते हैं, परद्रव्य तो निमित्तमात्र है – ऐसा मानना सम्यग्ज्ञान है। इसलिये
आचार्यदेव कहते हैं कि — हम राग-द्वेषकी उत्पत्तिमें अन्य द्रव्य पर क्यों कोप करें ? राग-
द्वेषका उत्पन्न होना तो अपना ही अपराध है।।३७२।।
अब, इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [इह ] इस आत्मामें [यत् राग-द्वेष-दोष-प्रसूतिः भवति ] जो
रागद्वेषरूप दोषोंकी उत्पत्ति होती है [तत्र परेषां कतरत् अपि दूषणं नास्ति ] उसमें परद्रव्यका
कोई भी दोष नहीं है, [तत्र स्वयम् अपराधी अयम् अबोधः सर्पति ] वहाँ तो स्वयं अपराधी
यह अज्ञान ही फै लता है; — [विदितम् भवतु ] इसप्रकार विदित हो और [अबोधः अस्तं
यातु ] अज्ञान अस्त हो जाये; [बोधः अस्मि ] मैं तो ज्ञान हूँ।
भावार्थ : — अज्ञानी जीव परद्रव्यसे रागद्वेषकी उत्पत्ति होती हुई मानकर परद्रव्य पर
क्रोध करता है कि – ‘यह परद्रव्य मुझे राग-द्वेष उत्पन्न कराता है, उसे दूर करूँ’। ऐसे
अज्ञानी जीवको समझानेके लिये आचार्यदेव उपदेश देते हैं कि — राग-द्वेषकी उत्पत्ति अज्ञानसे
आत्मामें ही होती है और वे आत्माके ही अशुद्ध परिणाम हैं। इसलिये इस अज्ञानको नाश
करो, सम्यग्ज्ञान प्रगट करो, आत्मा ज्ञानस्वरूप है ऐसा अनुभव करो; परद्रव्यको राग-द्वेषका
उत्पन्न करनेवाला मानकर उस पर कोप न करो।।२२०।।