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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
— इति प्रतिक्रमणकल्पः समाप्तः ।
न करोमि, न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा च वाचा च कायेन
चेति १ । न करोमि, न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा च वाचा चेति २ ।
न करोमि, न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा च कायेन चेति ३ ।
न करोमि, न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, वाचा च कायेन चेति ४ ।
न करोमि, न कारयामि, न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि, मनसा चेति ५ । न करोमि,
करके [निष्कर्मणि चैतन्य-आत्मनि आत्मनि आत्मना नित्यम् वर्ते ] मैं निष्कर्म (अर्थात् समस्त
कर्मोसें रहित) चैतन्यस्वरूप आत्मामें आत्मासे ही ( – निजसे ही – ) निरन्तर वर्त रहा हूँ (इसप्रकार
ज्ञानी अनुभव करता है)।
भावार्थ : — भूत कालमें किये गये कर्मको ४९ भंगपूर्वक मिथ्या करनेवाला
प्रतिक्रमण करके ज्ञानी ज्ञानस्वरूप आत्मामें लीन होकर निरन्तर चैतन्यस्वरूप आत्माका
अनुभव करे, इसकी यह विधि है। ‘मिथ्या’ कहनेका प्रयोजन इसप्रकार है : — जैसे, किसीने
पहले धन कमाकर घरमें रख छोड़ा था; और फि र जब उसके प्रति ममत्व छोड़ दिया तब
उसे भोगनेका अभिप्राय नहीं रहा; उस समय, भूत कालमें जो धन कमाया था वह नहीं
कमानेके समान ही है; इसीप्रकार, जीवने पहले कर्म बन्ध किया था; फि र जब उसे
अहितरूप जानकर उसके प्रति ममत्व छोड़ दिया और उसके फलमें लीन न हुआ, तब
भूतकालमें जो कर्म बाँधा था वह नहीं बाँधनेके समान मिथ्या ही है।२२६।
इसप्रकार प्रतिक्रमण-कल्प (अर्थात् प्रतिक्रमणकी विधि) समाप्त हुआ।
(अब, टीकामें आलोचनाकल्प कहते हैं : — )
मैं (वर्तमानमें कर्म) न तो करता हूँ, न कराता हूँ और न अन्य करते हुएका
अनुमोदन करता हूँ, मनसे, वचनसे तथा कायसे।१।
मैं (वर्तमानमें कर्म) न तो करता हूँ, न कराता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन
करता हूँ, मनसे तथा वचनसे।२। मैं (वर्तमानमें) न तो करता हूँ, न कराता हूँ, न अन्य
करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, मनसे, तथा कायसे।३। मैं न तो करता हूँ, न कराता हूँ,
न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, वचनसे तथा कायसे।४।
मैं न तो करता हूँ, न कराता हूँ, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करता हूँ, मनसे।५। मैं