ये खलु पर्यन्तपाकोत्तीर्णजात्यकार्तस्वरस्थानीयं परमं भावमनुभवन्ति तेषां प्रथम- द्वितीयाद्यनेकपाकपरम्परापच्यमानकार्तस्वरानुभवस्थानीयापरमभावानुभवनशून्यत्वाच्छुद्धद्रव्यादेशितया समुद्योतितास्खलितैकस्वभावैकभावः शुद्धनय एवोपरितनैकप्रतिवर्णिकास्थानीयत्वात्परिज्ञायमानः प्रयोजनवान्; ये तु प्रथमद्वितीयाद्यनेकपाकपरम्परापच्यमानकार्तस्वरस्थानीयमपरमं भावमनु- भवन्ति तेषां पर्यन्तपाकोत्तीर्णजात्यकार्तस्वरस्थानीयपरमभावानुभवनशून्यत्वादशुद्धद्रव्यादेशितयोप-
गाथार्थ : — [परमभावदर्शिभिः ] परमभावके देखनेवालेको तो [शुद्धादेशः ] शुद्ध (आत्मा) का उपदेश करनेवाला [शुद्धः ] शुद्धनय [ज्ञातव्यः ] जानने योग्य है; [पुनः ] और [ये तु ] जो जीव [अपरमे भावे ] अपरमभावमें [स्थिताः ] स्थित हैं वे [व्यवहारदेशिताः ] व्यवहार द्वारा उपदेश करने योग्य हैं ।
टीका : — जो पुरुष अन्तिम पाकसे उतरे हुए शुद्ध सुवर्णके समान (वस्तुके) उत्कृष्ट भावका अनुभव करते हैं उन्हें प्रथम, द्वितीय आदि पाकोंकी परम्परासे पच्यमान (पकाये जाते हुए) अशुद्ध स्वर्णके समान जो अनुत्कृष्ट मध्यम भाव हैं उनका अनुभव नहीं होता; इसलिए, शुद्धद्रव्यको कहनेवाला होनेसे जिसने अविचल अखण्ड एकस्वभावरूप एक भाव प्रगट किया है ऐसा शुद्धनय ही, सबसे ऊ परकी एक प्रतिवर्णिका (स्वर्ण वर्ण) के समान होनेसे, जाननेमें आता हुआ प्रयोजनवान है । परन्तु जो पुरुष प्रथम, द्वितीय आदि अनेक पाकों (तावों) की परपम्परासे पच्यमान अशुद्ध स्वर्णके समान जो (वस्तुका) अनुत्कृष्ट मध्यम (भाव) उसका अनुभव करते हैं उन्हें अन्तिम तावसे उतरे हुए शुद्ध स्वर्णके समान उत्कृष्ट भावका अनुभव नहीं होता; इसलिये, अशुद्ध द्रव्यको कहनेवाला होनेसे जिसने भिन्न-भिन्न एक-एक भावस्वरूप अनेक भाव दिखाये हैं ऐसा व्यवहारनय, विचित्र (अनेक) वर्णमालाके समान होनेसे, जाननेमें आता ( – ज्ञात होता) हुआ उस काल प्रयोजनवान है । इसप्रकार अपने अपने समयमें दोनों नय कार्यकारी