Samaysar (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


Page 26 of 642
PDF/HTML Page 59 of 675

 

background image
दर्शितप्रतिविशिष्टैकभावानेकभावो व्यवहारनयो विचित्रवर्णमालिकास्थानीयत्वात्परिज्ञायमानस्तदात्वे
प्रयोजनवान
्; तीर्थतीर्थफलयोरित्थमेव व्यवस्थितत्वात उक्तं च
‘‘जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारणिच्छए मुयह
एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्चं ।।’’
२६
समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
हैं, क्योंकि तीर्थ और तीर्थके फलकी ऐसी ही व्यवस्थिति है अन्यत्र भी कहा है कि :
‘‘जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारणिच्छए मुयह
एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्चं ।।’’
[अर्थ :आचार्य कहते हैं कि हे भव्य जीवों ! यदि तुम जिनमतका प्रवर्तन करना
चाहते हो तो व्यवहार और निश्चयइन दोनों नयोंको मत छोड़ो; क्योंकि व्यवहारनयके
बिना तो तीर्थव्यवहारमार्गका नाश हो जायगा और निश्चयनयके बिना तत्त्व (वस्तु)का नाश हो
जायेगा ]
भावार्थ :लोकमें सोनेके सोलह वान (ताव) प्रसिद्ध हैं पन्द्रहवें वान तक उसमें
चूरी आदि परसंयोगकी कालिमा रहती है, इसलिए तब तक वह अशुद्ध कहलाता है; और
ताव देते देते जब अन्तिम तावसे उतरता है तब वह सोलह-वान या सौ टंची शुद्ध सोना
कहलाता है
जिन्हें सोलहवानवाले सोनेका ज्ञान, श्रद्धान तथा प्राप्ति हुई है उन्हें पन्द्रह-वान
तकका सोना कोई प्रयोजनवान नहीं होता, और जिन्हें सोलह-वानवाले शुद्ध सोनेकी प्राप्ति
नहीं हुई है उन्हें तब तक पन्द्रह-वान तकका सोना भी प्रयोजनवान है
इसी प्रकार यह
जीव नामक पदार्थ है, जो कि पुद्गलके संयोगसे अशुद्ध अनेकरूप हो रहा है उसका
समस्त परद्रव्योंसे भिन्न, एक ज्ञायकत्वमात्रका ज्ञान, श्रद्धान तथा आचरणरूप प्राप्तियह
तीनों जिन्हें हो गये हैं, उन्हें पुद्गलसंयोगजनित अनेकरूपताको कहनेवाला अशुद्धनय कुछ
भी प्रयोजनवान (किसी मतलबका) नहीं है; किन्तु जहाँ तक शुद्धभावकी प्राप्ति नहीं हुई
वहाँ तक जितना अशुद्धनयका कथन है उतना यथापदवी प्रयोजनवान है
जहां तक यथार्थ
ज्ञानश्रद्धानकी प्राप्तिरूप सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति नहीं हुई हो, वहां तक तो जिनसे यथार्थ उपदेश
मिलता है ऐसे जिनवचनोंको सुनना, धारण करना तथा जिनवचनोंको कहनेवाले श्री जिन-
गुरुकी भक्ति, जिनबिम्बके दर्शन इत्यादि व्यवहारमार्गमें प्रवृत्त होना प्रयोजनवान है; और जिन्हें
श्रद्धान
ज्ञान तो हुए है; किन्तु साक्षात् प्राप्ति नहीं हुई उन्हें पूर्वकथित कार्य, परद्रव्यका
आलम्बन छोड़नेरूप अणुव्रत-महाव्रतका ग्रहण, समिति, गुप्ति और पंच परमेष्ठीका ध्यानरूप
प्रवर्तन तथा उस प्रकार प्रवर्तन करनेवालोंकी संगति एवं विशेष जाननेके लिये शास्त्रोंका