जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः ।
रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव ।।४।।
व्यवहारको छोड़ देगा और उसे शुद्धोपयोगकी साक्षात् प्राप्ति तो नहीं हुई है, इसलिए उल्टा
अशुभोपयोगमें ही आकर, भ्रष्ट होकर, चाहे जैसी स्वेच्छारूप प्रवृत्ति करेगा तो वह नरकादि
गति तथा परम्परासे निगोदको प्राप्त होकर संसारमें ही भ्रमण करेगा । इसलिए शुद्धनयका
प्रयोजनवान है — ऐसा स्याद्वाद मतमें श्री गुरुओंका उपदेश है ।।१२।।
श्लोकार्थ : — [उभय-नय विरोध-ध्वंसिनि ] निश्चय और व्यवहार — इन दो नयोंके विषयके भेदसे परस्पर विरोध है; उस विरोधका नाश करनेवाला [स्यात्-पद-अङ्के ] ‘स्यात्’-पदसे चिह्नित जो [जिनवचसि ] जिन भगवानका वचन (वाणी) है उसमें [ये रमन्ते ] जो पुरुष रमते हैं ( - प्रचुर प्रीति सहित अभ्यास करते हैं) [ते ] वे [स्वयं ] अपने आप ही (अन्य कारणके बिना) [वान्तमोहाः ] मिथ्यात्वकर्मके उदयका वमन करके [उच्चैः परं ज्योतिः समयसारं ] इस अतिशयरूप परमज्योति प्रकाशमान शुद्ध आत्माको [सपदि ईक्षन्ते एव ] तत्काल ही देखते हैं । वह समयसाररूप शुद्ध आत्मा [अनवम् ] नवीन उत्पन्न नहीं हुआ, किन्तु पहले कर्मोंसे आच्छादित था सो वह प्रगट व्यक्तिरूप हो गया है । और वह [अनय-पक्ष-अक्षुण्णम् ] सर्वथा एकान्तरूप कुनयके पक्षसे खण्डित नहीं होता, निर्बाध है । ❃व्यवहारनयके उपदेशसे ऐसा नहीं समझना चाहिए कि आत्मा परद्रव्यकी क्रिया कर सकता है, लेकिन ऐसा समझना कि व्यवहारोपदिष्ट शुभ भावोंको आत्मा व्यवहारसे कर सकता है । और उस उपदेशसे ऐसा
कि साधक दशामें भूमिकाके अनुसार शुभ भाव आये बिना नहीं रहते ।