मिह निहितपदानां हन्त हस्तावलम्बः ।
परविरहितमन्तः पश्यतां नैष किंचित् ।।५।।
भावार्थ : — जिनवचन (जिनवाणी) स्याद्वादरूप है । जहां दो नयोंके विषयका विरोध है — जैसे कि : जो सत्रूप होता है वह असत्रूप नहीं होता है, जो एक होता है वह अनेक नहीं होता, जो नित्य होता है वह अनित्य नहीं होता, जो भेदरूप होता है वह अभेदरूप नहीं होता, जो शुद्ध होता है वह अशुद्ध नहीं होता इत्यादि नयोंके विषयमें विरोध है — वहाँ जिनवचन कथंचित् विवक्षासे सत्-असत्रूप, एक-अनेकरूप, नित्य-अनित्यरूप, भेद-अभेदरूप, शुद्ध-अशुद्धरूप जिस प्रकार विद्यमान वस्तु है उसी प्रकार कहकर विरोध मिटा देता है, असत् कल्पना नहीं करता । वह जिनवचन द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक — इन दोनों नयोंमें, प्रयोजनवश शुद्धद्रव्यार्थिक नयको मुख्य करके उसे निश्चय कहता है और अशुद्धद्रव्यार्थिकरूप पर्यायार्थिकनयको गौण कर उसे व्यवहार कहता है । — ऐसे जिनवचनमें जो पुरुष रमण करते हैं वे इस शुद्ध आत्माको यथार्थ प्राप्त कर लेते हैं; अन्य सर्वथा-एकान्तवादी सांख्यादिक उसे प्राप्त नहीं कर पाते, क्योंकि वस्तु सर्वथा एकान्त पक्षका विषय नहीं है तथापि वे एक ही धर्मको ग्रहण करके वस्तुकी असत्य कल्पना करते हैं — जो असत्यार्थ है, बाधा सहित मिथ्या दृष्टि है ।४।
(व्यवहारनयकी) प्रधानतामें जीवादि तत्त्वोंके श्रद्धानको सम्यक्त्व कहा है, जब कि यहाँ उन जीवादि तत्त्वोंको शुद्धनयके द्वारा जाननेसे सम्यक्त्व होता है, यह कहते हैं । टीकाकार इसकी सूचनारूप तीन श्लोक कहते हैं, उनमेंसे प्रथम श्लोकमें यह कहते हैं कि व्यवहारनयको कथंचित् प्रयोजनवान कहा तथापि वह कुछ वस्तुभूत नहीं है : —
श्लोकार्थ : — [व्यवहरण-नयः ] जो व्यवहारनय है वह [यद्यपि ] यद्यपि [इह प्राक्- पदव्यां ] इस पहली पदवीमें (जब तक शुद्धस्वरूपकी प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक) [निहित- पदानां ] जिन्होंने अपना पैर रखा है ऐसे पुरुषोंको, [हन्त ] अरेरे ! [हस्तावलम्बः स्यात् ] हस्तावलम्बन तुल्य कहा है, [तद्-अपि ] तथापि [चित्-चमत्कार-मात्रं पर-विरहितं परमं अर्थं अन्तः पश्यतां ] जो पुरुष चैतन्य-चमत्कारमात्र, परद्रव्यभावोंसे रहित (शुद्धनयके विषयभूत) परम