Samaysar (Hindi). Kalash: 6.

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(शार्दूलविक्रीडित)
एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः
पूर्णज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक्
सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं
तन्मुक्त्वा नवतत्त्वसन्ततिमिमामात्मायमेकोऽस्तु नः
।।६।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
पूर्वरंग
२९
‘अर्थ’ को अन्तरङ्गमें अवलोकन करते हैं, उसकी श्रद्धा करते हैं तथा उसरूप लीन होकर
चारित्रभावको प्राप्त होते हैं उन्हें [एषः ] यह व्यवहारनय [किञ्चित् न ] कुछ भी प्रयोजनवान
नहीं है
भावार्थ :शुद्ध स्वरूपका ज्ञान, श्रद्धान तथा आचरण होनेके बाद अशुद्धनय कुछ भी
प्रयोजनकारी नहीं है ।५।
अब निश्चय सम्यक्त्वका स्वरूप कहते हैं :
श्लोकार्थ :[अस्य आत्मनः ] इस आत्माको [यद् इह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक्
दर्शनम् ] अन्य द्रव्योंसे पृथक् देखना (श्रद्धान करना) [एतत् एव नियमात् सम्यग्दर्शनम् ] ही
नियमसे सम्यग्दर्शन है
यह आत्मा [व्याप्तुः ] अपने गुण-पर्यायोंमें व्याप्त (रहनेवाला) है, और
[शुद्धनयतः एकत्वे नियतस्य ] शुद्धनयसे एकत्वमें निश्चित किया गया है तथा [पूर्ण-ज्ञान-
घनस्य ]
पूर्णज्ञानघन है
[च ] और [तावान् अयं आत्मा ] जितना सम्यग्दर्शन है उतना ही
यह आत्मा है [तत् ] इसलिए आचार्य प्रार्थना करते हैं कि ‘‘[इमाम् नव-तत्त्व-सन्ततिं
मुक्त्वा ] इस नवतत्त्वकी परिपाटीको छोड़कर, [अयम् आत्मा एकः अस्तु नः ] यह आत्मा
एक ही हमें प्राप्त हो’’
भावार्थ :सर्व स्वाभाविक तथा नैमित्तिक अपनी अवस्थारूप गुणपर्यायभेदोंमें
व्यापनेवाला यह आत्मा शुद्धनयसे एकत्वमें निश्चित किया गया हैशुद्धनयसे ज्ञायकमात्र
एक-आकार दिखलाया गया है, उसे सर्व अन्यद्रव्योंके और अन्यद्रव्योंके भावोंसे अलग
देखना, श्रद्धान करना सो नियमसे सम्यग्दर्शन है
व्यवहारनय आत्माको अनेक भेदरूप
कहकर सम्यग्दर्शनको अनेक भेदरूप कहता है, वहाँ व्यभिचार (दोष) आता है, नियम नहीं
रहता
शुद्धनयकी सीमा तक पहुँचने पर व्यभिचार नहीं रहता, इसलिए नियमरूप है
शुद्धनयके विषयभूत आत्मा पूर्णज्ञानघन हैसर्व लोकालोकको जाननेवाले ज्ञानस्वरूप है
ऐसे आत्माका श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन है यह कहीं पृथक् पदार्थ नहीं हैआत्माका ही
परिणाम है, इसलिये आत्मा ही है अतः जो सम्यग्दर्शन है सो आत्मा है, अन्य नहीं