(अनुष्टुभ्)
अतः शुद्धनयायत्तं प्रत्यग्ज्योतिश्चकास्ति तत् ।
नवतत्त्वगतत्वेऽपि यदेकत्वं न मुंचति ।।७।।
३०
समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
यहाँ इतना विशेष समझना चाहिए कि जो नय है सो श्रुतप्रमाणका अंश है, इसलिये
शुद्धनय भी श्रुतप्रमाणका ही अंश हुआ । श्रुतप्रमाण परोक्ष प्रमाण है, क्योंकि वस्तुको सर्वज्ञके
आगमके वचनसे जाना है; इसलिये यह शुद्धनय सर्व द्रव्योंसे भिन्न, आत्माकी सर्व पर्यायोंमें
व्याप्त, पूर्ण चैतन्य केवलज्ञानरूप — सर्व लोकालोकको जाननेवाले, असाधारण चैतन्यधर्मको
परोक्ष दिखाता है । यह व्यवहारी छद्मस्थ जीव आगमको प्रमाण करके शुद्धनयसे दिखाये गये
पूर्ण आत्माका श्रद्धान करे सो वह श्रद्धान निश्चय सम्यग्दर्शन है । जब तक केवल
व्यवहारनयके विषयभूत जीवादिक भेदरूप तत्त्वोंका ही श्रद्धान रहता है तब तक निश्चय
सम्यग्दर्शन नहीं होता । इसलिये आचार्य कहते हैं कि इस नवतत्त्वोंकी संतति (परिपाटी) को
छोड़कर शुद्धनयके विषयभूत एक आत्मा ही हमें प्राप्त हो; हम दूसरा कुछ नहीं चाहते । यह
वीतराग अवस्थाकी प्रार्थना है, कोई नयपक्ष नहीं है । यदि सर्वथा नयोंका पक्षपात ही हुआ
क रे तो मिथ्यात्व ही है ।
यहाँ कोई प्रश्न करता है कि — आत्मा चैतन्य है, मात्र इतना ही अनुभवमें आये तो
इतनी श्रद्धा सम्यग्दर्शन है या नहीं ? उसका समाधान यह है : — नास्तिकोंको छोड़कर सभी
मतवाले आत्माको चैतन्यमात्र मानते हैं; यदि इतनी ही श्रद्धाको सम्यग्दर्शन कहा जाये तो
सबको सम्यक्त्व सिद्ध हो जायगा । इसलिये सर्वज्ञकी वाणीमें जैसा पूर्ण आत्माका स्वरूप
कहा है वैसा श्रद्धान होनेसे ही निश्चय सम्यक्त्व होता है, ऐसा समझना चाहिए ।६।
अब, टीकाकार – आचार्य निम्नलिखित श्लोकमें यह कहते हैं कि — ‘तत्पश्चात्
शुद्धनयके आधीन, सर्व द्रव्योंसे भिन्न, आत्मज्योति प्रगट हो जाती है’ : —
श्लोकार्थ : — [अतः ] तत्पश्चात् [शुद्धनय-आयत्तं ] शुद्धनयके आधीन [प्रत्यग्-
ज्योतिः ] जो भिन्न आत्मज्योति है [तत् ] वह [चकास्ति ] प्रगट होती है [यद् ] कि जो
[नव-तत्त्व-गतत्वे अपि ] नवतत्त्वोंमें प्राप्त होने पर भी [एकत्वं ] अपने एकत्वको [न
मुंचति ] नहीं छोड़ती ।
भावार्थ : — नवतत्त्वोंमें प्राप्त हुआ आत्मा अनेकरूप दिखाई देता है; यदि उसका भिन्न
स्वरूप विचार किया जाये तो वह अपनी चैतन्यचमत्कारमात्र ज्योतिको नहीं छोड़ता ।७।