Samaysar (Hindi).

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कहानजैनशास्त्रमाला ]
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
५५३
श्रुतज्ञानावरणीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये २ नाहमवधिज्ञानावरणीयकर्मफलं
भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ३ नाहं मनःपर्ययज्ञानावरणीयकर्मफलं भुंजे,
चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ४ नाहं केवलज्ञानावरणीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव
संचेतये ५
नाहं चक्षुर्दर्शनावरणीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ६
नाहमचक्षुर्दर्शनावरणीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ७ नाहमवधिदर्शना-
वरणीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ८ नाहं केवलदर्शनावरणीय-
कर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ९ नाहं निद्रादर्शनावरणीयकर्मफलं
भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १० नाहं निद्रानिद्रादर्शनावरणीयकर्मफलं भुंजे,
चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ११ नाहं प्रचलादर्शनावरणीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मा-
नमात्मानमेव संचेतये १२ नाहं प्रचलाप्रचलादर्शनावरणीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मा-
नमात्मानमेव संचेतये १३ नाहं स्त्यानगृद्धिदर्शनावरणीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव
संचेतये १४
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चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतनअनुभव करता हूँ।२। मैं अवधिज्ञानावरणीयकर्मके फलको नहीं
भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।३। मैं मनःपर्यय- ज्ञानावरणीयकर्मके फलको
नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।४। मैं केवलज्ञानावरणीयकर्मके फलको
नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ।५।
मैं चक्षुर्दर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन
करता हूँ।६। मैं अचक्षुर्दर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही
संचेतन करता हूँ।७। मैं अवधिदर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप
आत्माका ही संचेतन करता हूँ ।८। मैं केवलदर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता,
चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ ।९। मैं निद्रादर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं
भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ ।१०। मैं निद्रानिद्रादर्शनावरणीयकर्मके
फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ ।११। मैं
प्रचलादर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता
हूँ
।१२। मैं प्रचलाप्रचलादर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही
संचेतन करता हूँ।१३। मैं स्त्यानगृद्धिदर्शनावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप
आत्माका ही संचेतन करता हूँ।१४।