नाहं मतिज्ञानावरणीयकर्मफलं भुंजे, चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये १ । नाहं प्रकारसे [त्रैकालिकं समस्तम् कर्म ] तीनोंकालके समस्त कर्मोंको [अपास्य ] दूर करके – छोड़कर, [शुद्धनय-अवलंबी ] शुद्धनयावलंबी (अर्थात् शुद्धनयका अवलंबन करनेवाला) और [विलीन- मोहः ] विलीन मोह (अर्थात् जिसका मिथ्यात्व नष्ट हो गया है) ऐसा मैं [अथ ] अब [विकारैः रहितं चिन्मात्रम् आत्मानम् ] (सर्व) विकारोंसे रहित चैतन्यमात्र आत्माका [अवलम्बे ] अवलम्बन करता हूँ।२२९।
श्लोकार्थ : — (समस्त कर्मफलकी संन्यासभावनाका करनेवाला कहता है कि — ) [कर्म-विष-तरु-फलानि ] कर्मरूपी विषवृक्षके फल [मम भुक्तिम् अन्तरेण एव ] मेरे द्वारा भोगे बिना ही, [विगलन्तु ] खिर जायें; [अहम् चैतन्य-आत्मानम् आत्मानम् अचलं सञ्चेतये ] मैं (अपने) चैतन्यस्वरूप आत्माका निश्चलतया संचेतन – अनुभव करता हूँ।
भावार्थ : — ज्ञानी कहता है कि — जो कर्म उदयमें आता है उसके फलको मैं ज्ञाताद्रष्टारूपसे जानता-देखता हूँ, उसका भोक्ता नहीं होता, इसलिये मेरे द्वारा भोगे बिना ही वे कर्म खिर जायें; मैं अपने चैतन्यस्वरूप आत्मामें लीन होता हुआ उसका ज्ञाता-द्रष्टा ही होऊँ।
यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि — अविरत, देशविरत तथा प्रमत्तसंयत दशामें तो ऐसा ज्ञान-श्रद्धान ही प्रधान है, और जब जीव अप्रमत्त दशाको प्राप्त होकर श्रेणि चढ़ता है तब यह अनुभव साक्षात् होता है।।२३०।।
संचेतन करता हूँ अर्थात् एकाग्रतया अनुभव करता हूँ। (यहाँ ‘चेतना’ अर्थात् अनुभव करना, वेदना, भोगना। ‘सं’ उपसर्ग लगनेसे, ‘संचेतना’ अर्थात् ‘एकाग्रतया अनुभव करना’ ऐसा अर्थ यहाँ समस्त पाठोंमें समझना चाहिये।)।१। मैं श्रुतज्ञानावरणीयकर्मके फलको नहीं भोगता,