(उपजाति) समस्तमित्येवमपास्य कर्म त्रैकालिकं शुद्धनयावलम्बी । विलीनमोहो रहितं विकारै- श्चिन्मात्रमात्मानमथावलम्बे ।।२२९।।
श्लोकार्थ : — (प्रत्याख्यान करनेवाला ज्ञानी कहता है कि : – ) [भविष्यत् समस्तं कर्म प्रत्याख्याय ] भविष्यके समस्त कर्मोंका प्रत्याख्यान ( – त्याग) करके, [निरस्त-सम्मोहः निष्क र्मणि चैतन्य-आत्मनि आत्मनि आत्मना नित्यम् वर्ते ] जिसका मोह नष्ट हो गया है ऐसा मैं निष्कर्म (अर्थात् समस्त कर्मोसे रहित) चैतन्यस्वरूप आत्मामें आत्मासे ही ( – अपनेसे ही – ) निरन्तर वर्त रहा हूँ।
भावार्थ : — निश्चयचारित्रमें प्रत्याख्यान विधान ऐसा है कि – समस्त आगामी कर्मोंसे रहित, चैतन्यकी प्रवृत्तिरूप (अपने) शुद्धोपयोगमें रहना सो प्रत्याख्यान है। इससे ज्ञानी आगामी समस्त कर्मोंका प्रत्याख्यान करके अपने चैतन्यस्वरूपमें रहता है।
यहाँ तात्पर्य इसप्रकार जानना चाहिएः — व्यवहारचारित्रमें तो प्रतिज्ञामें जो दोष लगता है उसका प्रतिक्रमण, आलोचना तथा प्रत्याख्यान होता है। यहाँ निश्चयचारित्रकी प्रधानतासे कथन है इसलिये शुद्धोपयोगसे विपरीत सर्व कर्म आत्माके दोष स्वरूप हैं। उन समस्त कर्मचेतनास्वरूप परिणामोंका — तीनों कालके कर्मोंका — प्रतिक्रमण, आलोचना तथा प्रत्याख्यान करके ज्ञानी सर्व कर्मचेतनासे भिन्न अपने शुद्धोपयोगरूप आत्माके ज्ञानश्रद्धान द्वारा और उसमें स्थिर होनेके विधान द्वारा निष्प्रमाद दशाको प्राप्त होकर श्रेणी चढ़कर, केवलज्ञान उत्पन्न करनेके सन्मुख होता है। यह, ज्ञानीका कार्य है।२२८।
करते हुए, कलशरूप काव्य कहते हैं : —