Samaysar (Hindi). Kalash: 231.

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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
(वसन्ततिलका)
निश्शेषकर्मफलसंन्यसनान्ममैवं
सर्वक्रियान्तरविहारनिवृत्तवृत्तेः
चैतन्यलक्ष्म भजतो भृशमात्मतत्त्वं
कालावलीयमचलस्य वहत्वनन्ता
।।२३१।।
(यहाँ भावनाका अर्थ बारम्बार चिंतवन करके उपयोगका अभ्यास करना है जब जीव
सम्यग्दृष्टिज्ञानी होता है तब इसे ज्ञान-श्रद्धान तो हुआ ही है कि ‘मैं शुद्धनयसे समस्त कर्म और
कर्मके फलसे रहित हूँ परन्तु पूर्वबद्ध कर्म उदयमें आने पर उनसे होनेवाले भावोंका कर्तृत्व
छोड़कर, त्रिकाल सम्बन्धी ४९-४९ भंगोंके द्वारा कर्मचेतनाके त्यागकी भावना करके तथा समस्त
कर्मोंका फल भोगनेके त्यागकी भावना करके, एक चैतन्यस्वरूप आत्माको ही भोगना शेष रह
जाता है
अविरत, देशविरत और प्रमत्तअवस्थावाले जीवके ज्ञानश्रद्धानमें निरन्तर यह भावना तो
है ही; और जब जीव अप्रमत्तदशाको प्राप्त करके एकाग्र चित्तसे ध्यान करे, केवल चैतन्यमात्र
आत्मामें उपयोग लगाये और शुद्धोपयोगरूप हो, तब निश्चयचारित्ररूप शुद्धोपयोगभावसे श्रेणि
चढ़कर केवलज्ञान उत्पन्न करता है
उस समय इस भावनाका फल जो कर्मचेतना और
कर्मफलचेतनासे रहित साक्षात् ज्ञानचेतनारूप परिणमन है वह होता है पश्चात् आत्मा अनन्तकाल
तक ज्ञानचेतनारूप ही रहता हुआ परमानन्दमें मग्न रहता है)
अब, इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :(सकल कर्मोंके फलका त्याग करके ज्ञानचेतनाकी भावना करनेवाला
ज्ञानी कहता है किः[एवं ] पूर्वोक्त प्रकारसे [निःशेष-कर्म-फल-संन्यसनात् ] समस्त कर्मके
फलका संन्यास करनेसे [चैतन्य-लक्ष्म आत्मतत्त्वं भृशम् भजतः सर्व-क्रियान्तर-विहारनिवृत्त-
वृत्तेः ]
मैं चैतन्यलक्षण आत्मतत्त्वको अतिशयतया भोगता हूँ और उसके अतिरिक्त अन्य सर्व
क्रियामें विहारसे मेरी वृत्ति निवृत्त है (अर्थात् आत्मतत्त्वके उपभोगसे अतिरिक्त अन्य जो उपयोगकी
क्रिया
विभावरूप क्रिया उसमें मेरी परिणति विहारप्रवृत्ति नहीं करती); [अचलस्य मम ]
इसप्रकार आत्मतत्त्वके उपभोगमें अचल ऐसे मुझे, [इयम् काल-आवली ] यह कालकी आवली
जो कि [अनन्ता ] प्रवाहरूपसे अनन्त है वह, [वहतु ] आत्मतत्त्वके उपभोगमें ही बहती रहे
(उपयोगकी प्रवृत्ति अन्यमें कभी भी न जाये)
भावार्थ :ऐसी भावना करनेवाला ज्ञानी ऐसा तृप्त हुआ है कि मानों भावना करता हुआ
साक्षात् केवली ही हो गया हो; इससे वह अनन्तकाल तक ऐसा ही रहना चाहता है और यह