कहानजैनशास्त्रमाला ]
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
५६५
(वसन्ततिलका)
यः पूर्वभावकृतकर्मविषद्रुमाणां
भुंक्ते फलानि न खलु स्वत एव तृप्तः ।
आपातकालरमणीयमुदर्करम्यं
निष्कर्मशर्ममयमेति दशान्तरं सः ।।२३२।।
(स्रग्धरा)
अत्यन्तं भावयित्वा विरतिमविरतं कर्मणस्तत्फलाच्च
प्रस्पष्टं नाटयित्वा प्रलयनमखिलाज्ञानसंचेतनायाः
पूर्णं कृत्वा स्वभावं स्वरसपरिगतं ज्ञानसंचेतनां स्वां
सानन्दं नाटयन्तः प्रशमरसमितः सर्वकालं पिबन्तु ।।२३३।।
योग्य ही है; क्योंकि इसी भावनासे केवली हुआ जाता है। केवलज्ञान उत्पन्न करनेका परमार्थ
उपाय यही है। बाह्य व्यवहारचारित्र इसीका साधनरूप है; और इसके बिना व्यवहारचारित्र
शुभकर्मको बाँधता है, वह मोक्षका उपाय नहीं है।२३१।
अब, पुनः काव्य कहते हैं : –
श्लोकार्थ : — [पूर्व-भाव-कृत-कर्म-विषद्रुमाणां फलानि यः न भुङ्क्ते ] पहले
अज्ञानभावसे उपार्जित कर्मरूपी विषवृक्षोंके फलको जो पुरुष (उसका स्वामी होकर) नहीं भोगता
और [खलु स्वतः एव तृप्तः ] वास्तवमें अपनेसे ही ( – आत्मस्वरूपसे ही) तृप्त है, [सः आपात-
काल-रमणीयम् उदर्क-रम्यम् निष्कर्म-शर्ममयम् दशान्तरम् एति ] वह पुरुष, जो वर्तमानकालमें
रमणीय है और भविष्यकालमें भी जिसका फल रमणीय है ऐसे निष्कर्म – सुखमय दशांतरको प्राप्त
होता है (अर्थात् जो पहले संसार अवस्थामें कभी नहीं हुई थी, ऐसी भिन्न प्रकारकी कर्म रहित
स्वाधीन सुखमयदशाको प्राप्त होता है)।
भावार्थ : — ज्ञानचेतनाकी भावनाका फल यह है। उस भावनासे जीव अत्यन्त तृप्त रहता
है — अन्य तृष्णा नहीं रहती, और भविष्यमें केवलज्ञान उत्पन्न करके समस्त कर्मोंसे रहित मोक्ष-
अवस्थाको प्राप्त होता है।२३२।
‘पूर्वोक्त रीतिसे कर्मचेतना और कर्मफलचेतनाके त्यागकी भावना करके अज्ञानचेतनाके
प्रलयको प्रगटतया नचाकर, अपने स्वभावको पूर्ण करके, ज्ञानचेतनाको नचाते हुए ज्ञानीजन
सदाकाल आनन्दरूप रहो’ — इस उपदेशका दर्शक काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [अविरतं कर्मणः तत्फलात् च विरतिम् अत्यन्तं भावयित्वा ] ज्ञानीजन,