विना कृतेरेकमनाकुलं ज्वलत् ।
विवेचितं ज्ञानमिहावतिष्ठते ।।२३४।।
अत्यन्त विरक्त भावको निरन्तर भा कर, [अखिल-अज्ञान-संचेतनायाः प्रलयनम् प्रस्पष्टं नाटयित्वा ]
(इस भाँति) समस्त अज्ञानचेतनाके नाशको स्पष्टतया नचाकर, [स्व-रस-परिगतं स्वभावं पूर्णं
कृत्वा ] निजरससे प्राप्त अपने स्वभावको पूर्ण करके, [स्वां ज्ञानसञ्चेतनां सानन्दं नाटयन्तः इतः
सर्व-कालं प्रशमरसम् पिबन्तु ] अपनी ज्ञानचेतनाको आनन्द पूर्वक नचाते हुए अबसे सदाकाल
प्रशमरसको पिओ अर्थात् कर्मके अभावरूप आत्मिकरसको – अमृतरसको – अभीसे लेकर
भावार्थ : — पहले तो त्रिकाल सम्बन्धी कर्मके कर्तृत्वरूप कर्मचेतनाके त्यागकी भावना (४९ भंगपूर्वक) कराई। और फि र १४८ कर्म प्रकृतियोंके उदयरूप कर्मफलके त्यागकी भावना कराई। इसप्रकार अज्ञानचेतनाका प्रलय कराकर ज्ञानचेतनामें प्रवृत्त होनेका उपदेश दिया है। यह ज्ञानचेतना सदा आनन्दरूप अपने स्वभावकी अनुभवरूप है। ज्ञानीजन सदा उसका उपभोग करो — ऐसा श्रीगुरुओंका उपदेश है।२३३।
यह सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार है, इसलिये ज्ञानको कर्तृत्वभोक्तृत्वसे भिन्न बताया; अब आगेकी गाथाओंमें अन्य द्रव्य और अन्य द्रव्योंके भावोंसे ज्ञानको भिन्न बतायेंगे। पहले उन गाथाओंका सूचक काव्य कहते हैं : –
श्लोकार्थ : — [इतः इह ] यहाँसे अब (इस सर्वविशुद्धज्ञान अधिकारमें आगेकी गाथाओंमें यह कहते हैं कि — ) [समस्त-वस्तु-व्यतिरेक-निश्चयात् विवेचितं ज्ञानम् ] समस्त वस्तुओंके भिन्नत्वके निश्चय द्वारा पृथक् किया गया ज्ञान, [पदार्थ-प्रथन-अवगुण्ठनात् कृतेः विना ] पदार्थके विस्तारके साथ गुथित होनेसे ( – अनेक पदार्थोंके साथ, ज्ञेय-ज्ञान सम्बन्धके कारण; एक जैसा दिखाई देनेसे) उत्पन्न होनेवाली (अनेक प्रकारकी) क्रिया उनसे रहित [एकम् अनाकुलं ज्वलत् ] एक ज्ञानक्रियामात्र, अनाकुल ( – सर्व आकुलतासे रहित) और देदीप्यमान होता हुआ, [अवतिष्ठते ] निश्चल रहता है।