कहानजैनशास्त्रमाला ]
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
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व्यावर्त्य दर्शनज्ञानचारित्रेषु नित्यमेवावस्थापयातिनिश्चलमात्मानं; तथा समस्तचिन्तान्तर-
निरोधेनात्यन्तमेकाग्रो भूत्वा दर्शनज्ञानचारित्राण्येव ध्यायस्व; तथा सकलकर्मकर्मफलचेतनासंन्यासेन
शुद्धज्ञानचेतनामयो भूत्वा दर्शनज्ञानचारित्राण्येव चेतयस्व; तथा द्रव्यस्वभाववशतः प्रतिक्षण-
विजृम्भमाणपरिणामतया तन्मयपरिणामो भूत्वा दर्शनज्ञानचारित्रेष्वेव विहर; तथा ज्ञानरूप-
मेकमेवाचलितमवलम्बमानो ज्ञेयरूपेणोपाधितया सर्वत एव प्रधावत्स्वपि परद्रव्येषु सर्वेष्वपि मनागपि
मा विहार्षीः
।
(शार्दूलविक्रीडित)
एको मोक्षपथो य एष नियतो द्रग्ज्ञप्तिवृत्त्यात्मक-
स्तत्रैव स्थितिमेति यस्तमनिशं ध्यायेच्च तं चेतति ।
तस्मिन्नेव निरन्तरं विहरति द्रव्यान्तराण्यस्पृशन्
सोऽवश्यं समयस्य सारमचिरान्नित्योदयं विन्दति ।।२४०।।
( – बुद्धिके) दोषसे परद्रव्यमें — रागद्वेषादिमें निरन्तर स्थित रहता हुआ भी, अपनी प्रज्ञाके गुण द्वारा
ही उसमेंसे पीछे हटाकर उसे अति निश्चलता पूर्वक दर्शन-ज्ञान-चारित्रमें निरन्तर स्थापित कर, तथा
समस्त अन्य चिन्ताके निरोध द्वारा अत्यन्त एकाग्र होकर दर्शन-ज्ञान-चारित्रका ही ध्यान कर; तथा
समस्त कर्मचेतना और कर्मफलचेतनाके त्याग द्वारा शुद्धज्ञानचेतनामय होकर दर्शन-ज्ञान-चारित्रको
ही चेत — अनुभव कर; तथा द्रव्यके स्वभावके वशसे (अपनेको) प्रतिक्षण जो परिणाम उत्पन्न
होते हैं उनके द्वारा [अर्थात् परिणामीपनेके द्वारा तन्मय परिणामवाला ( – दर्शनज्ञानचारित्रमय
परिणामवाला) होकर ] दर्शन-ज्ञान-चारित्रमें ही विहार कर; तथा ज्ञानरूपको एकको ही अचलतया
अवलम्बन करता हुआ, जो ज्ञेयरूप होनेसे उपाधिस्वरूप हैं ऐसे सर्व ओरसे फै लते हुए समस्त
परद्रव्योंमें किंचित् मात्र भी विहार मत कर।
भावार्थ : — परमार्थरूप आत्माके परिणाम दर्शन-ज्ञान-चारित्र हैं; वही मोक्षमार्ग है।
उसीमें ( – दर्शनज्ञानचारित्रमें ही) आत्माको स्थापित करना चाहिए, उसीका ध्यान करना चाहिए,
उसीका अनुभव करना चाहिए और उसीमें विहार (प्रवर्तन) करना चाहिए, अन्य द्रव्योंमें प्रवर्तन
नहीं करना चाहिए। यहाँ परमार्थसे यही उपदेश है कि — निश्चय मोक्षमार्गका सेवन करना चाहिए,
मात्र व्यवहारमें ही मूढ़ नहीं रहना चाहिए।।४१२।।
अब, इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [दृग्-ज्ञप्ति-वृत्ति-आत्मकः यः एषः एकः नियतः मोक्षपथः ] दर्शनज्ञान-
चारित्रस्वरूप जो यह एक नियत मोक्षमार्ग है, [तत्र एव यः स्थितिम् एति ] उसीमें जो पुरुष स्थिति