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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
(अनुष्टुभ्)
दर्शनज्ञानचारित्रत्रयात्मा तत्त्वमात्मनः ।
एक एव सदा सेव्यो मोक्षमार्गो मुमुक्षुणा ।।२३९।।
मोक्खपहे अप्पाणं ठवेहि तं चेव झाहि तं चेय ।
तत्थेव विहर णिच्चं मा विहरसु अण्णदव्वेसु ।।४१२।।
मोक्षपथे आत्मानं स्थापय तं चैव ध्यायस्व तं चेतयस्व ।
तत्रैव विहर नित्यं मा विहार्षीरन्यद्रव्येषु ।।४१२।।
आसंसारात्परद्रव्ये रागद्वेषादौ नित्यमेव स्वप्रज्ञादोषेणावतिष्ठमानमपि, स्वप्रज्ञागुणेनैव ततो
द्रव्यलिंगका पक्ष छुड़ानेका उपदेश दिया है कि — भेखमात्रसे (वेशमात्रसे, बाह्यव्रतमात्रसे) मोक्ष
नहीं होता। परमार्थ मोक्षमार्ग तो आत्माके परिणाम जो दर्शन-ज्ञान-चारित्र हैं वही है। व्यवहार
आचारसूत्रके कथनानुसार जो मुनि-श्रावकके बाह्य व्रत हैं, वे व्यवहारसे निश्चयमोक्षमार्गके साधक
हैं; उन व्रतोंको यहाँ नहीं छुड़ाया है, किन्तु यह कहा है कि उन व्रतोंका भी ममत्व छोड़कर परमार्थ
मोक्षमार्गमें लगनेसे मोक्ष होता है, केवल वेशमात्रसे – व्रतमात्रसे मोक्ष नहीं होता।।४११।।
अब, इसी अर्थको दृढ़ करनेवाली आगामी गाथाका सूचक श्लोक कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [आत्मनः तत्त्वम् दर्शन-ज्ञान-चारित्र-त्रय-आत्मा ] आत्माका तत्त्व
दर्शनज्ञानचारित्रत्रयात्मक है (अर्थात् आत्माका यथार्थ रूप दर्शन, ज्ञान और चारित्रके त्रिकस्वरूप
है); [मुमुक्षुणा मोक्षमार्गः एकः एव सदा सेव्यः ] इसलिये मोक्षके इच्छुक पुरुषको (यह
दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप) मोक्षमार्ग एक ही सदा सेवन करने योग्य है।२३९।
अब, इसी उपदेशको गाथा द्वारा कहते हैं : —
तूं स्थाप निजको मोक्षपथमें, ध्या, अनुभव तू उसे।
उसमें हि नित्य विहार कर, न विहार कर परद्रव्यमें।।४१२।।
गाथार्थ : — (हे भव्य !) [मोक्षपथे ] तू मोक्षमार्गमें [आत्मानं स्थापय ] अपने आत्माको
स्थापित कर, [तं च एव ध्यायस्व ] उसीका ध्यान कर, [तं चेतयस्व ] उसीको चेत – अनुभव कर
[तत्र एव नित्यं विहर ] और उसीमें निरन्तर विहार कर; [अन्यद्रव्येषु मा विहार्षीः ] अन्य द्रव्योंमें
विहार मत कर।
टीका : — (हे भव्य !) स्वयं अर्थात् अपना आत्मा अनादि संसारसे लेकर अपनी प्रज्ञाके