यः खलु श्रमणश्रमणोपासकभेदेन द्विविधं द्रव्यलिंगंं भवति मोक्षमार्ग इति प्ररूपणप्रकारः स केवलं व्यवहार एव, न परमार्थः, तस्य स्वयमशुद्धद्रव्यानुभवनात्मकत्वे सति परमार्थत्वा- भावात्; यदेव श्रमणश्रमणोपासकविकल्पातिक्रान्तं द्रशिज्ञप्तिप्रवृत्तवृत्तिमात्रं शुद्धज्ञानमेवैकमिति निस्तुषसंचेतनं परमार्थः, तस्यैव स्वयं शुद्धद्रव्यानुभवनात्मकत्वे सति परमार्थत्वात् । ततो ये व्यवहारमेव परमार्थबुद्धया चेतयन्ते, ते समयसारमेव न संचेतयन्ते; य एव परमार्थं परमार्थबुद्धया
‘व्यवहारनय ही मुनिलिंगको और श्रावकलिंगको — दोनोंको मोक्षमार्ग कहता है, निश्चयनय किसी लिंगको मोक्षमार्ग नहीं कहता’ — यह गाथा द्वारा कहते हैं : —
गाथार्थ : — [व्यावहारिकः नयः पुनः ] व्यवहारनय [द्वे लिङ्गे अपि ] दोनों लिंगोंको [मोक्षपथे भणति ] मोक्षमार्गमें कहता है (अर्थात् व्यवहारनय मुनिलिंग और गृहीलिंगको मोक्षमार्ग कहता है); [निश्चयनयः ] निश्चयनय [सर्वलिङ्गानि ] सभी लिंगोंको (अर्थात् किसी भी लिंगको) [मोक्षपथे न इच्छति ] मोक्षमार्गमें नहीं मानता।
टीका : — श्रमण और श्रमणोपासकके भेदसे दो प्रकारके द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग हैं — इसप्रकारका जो प्ररूपण-प्रकार (अर्थात् इसप्रकारकी जो प्ररूपणा) वह केवल व्यवहार ही है, परमार्थ नहीं, क्योंकि वह (प्ररूपणा) स्वयं अशुद्ध द्रव्यकी अनुभवनस्वरूप है, इसलिये उसको परमार्थताका अभाव है; श्रमण और श्रमणोपासकके भेदोंसे अतिक्रान्त, दर्शनज्ञानमें प्रवृत्त परिणतिमात्र ( – मात्र दर्शन-ज्ञानमें प्रवर्तित हुई परिणतिरूप) शुद्ध ज्ञान ही एक है — ऐसा जो निष्तुष ( – निर्मल) अनुभवन ही परमार्थ है, क्योंकि वह (अनुभवन) स्वयं शुद्ध द्रव्यका अनुभवनस्वरूप होनेसे उसीके परमार्थत्व है। इसलिये जो व्यवहारको ही परमार्थबुद्धिसे ( – परमार्थ मानकर) अनुभव करते हैं, वे समयसारका ही अनुभव नहीं करते; जो परमार्थको परमार्थबुद्धिसे अनुभव करते