कहानजैनशास्त्रमाला ]
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
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ववहारिओ पुण णओ दोण्णि वि लिंगाणि भणदि मोक्खपहे ।
णिच्छयणओ ण इच्छदि मोक्खपहे सव्वलिंगाणि ।।४१४।।
व्यावहारिकः पुनर्नयो द्वे अपि लिङ्गे भणति मोक्षपथे ।
निश्चयनयो नेच्छति मोक्षपथे सर्वलिङ्गानि ।।४१४।।
यः खलु श्रमणश्रमणोपासकभेदेन द्विविधं द्रव्यलिंगंं भवति मोक्षमार्ग इति प्ररूपणप्रकारः
स केवलं व्यवहार एव, न परमार्थः, तस्य स्वयमशुद्धद्रव्यानुभवनात्मकत्वे सति परमार्थत्वा-
भावात्; यदेव श्रमणश्रमणोपासकविकल्पातिक्रान्तं द्रशिज्ञप्तिप्रवृत्तवृत्तिमात्रं शुद्धज्ञानमेवैकमिति
निस्तुषसंचेतनं परमार्थः, तस्यैव स्वयं शुद्धद्रव्यानुभवनात्मकत्वे सति परमार्थत्वात् । ततो ये
व्यवहारमेव परमार्थबुद्धया चेतयन्ते, ते समयसारमेव न संचेतयन्ते; य एव परमार्थं परमार्थबुद्धया
‘व्यवहारनय ही मुनिलिंगको और श्रावकलिंगको — दोनोंको मोक्षमार्ग कहता है, निश्चयनय
किसी लिंगको मोक्षमार्ग नहीं कहता’ — यह गाथा द्वारा कहते हैं : —
व्यवहारनय, इन लिंग द्वयको मोक्षके पथमें कहे।
निश्चय नहीं माने कभी को लिंग मुक्तीपंथमें।।४१४।।
गाथार्थ : — [व्यावहारिकः नयः पुनः ] व्यवहारनय [द्वे लिङ्गे अपि ] दोनों लिंगोंको
[मोक्षपथे भणति ] मोक्षमार्गमें कहता है (अर्थात् व्यवहारनय मुनिलिंग और गृहीलिंगको मोक्षमार्ग
कहता है); [निश्चयनयः ] निश्चयनय [सर्वलिङ्गानि ] सभी लिंगोंको (अर्थात् किसी भी लिंगको)
[मोक्षपथे न इच्छति ] मोक्षमार्गमें नहीं मानता।
टीका : — श्रमण और श्रमणोपासकके भेदसे दो प्रकारके द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग हैं —
इसप्रकारका जो प्ररूपण-प्रकार (अर्थात् इसप्रकारकी जो प्ररूपणा) वह केवल व्यवहार ही है,
परमार्थ नहीं, क्योंकि वह (प्ररूपणा) स्वयं अशुद्ध द्रव्यकी अनुभवनस्वरूप है, इसलिये उसको
परमार्थताका अभाव है; श्रमण और श्रमणोपासकके भेदोंसे अतिक्रान्त, दर्शनज्ञानमें प्रवृत्त
परिणतिमात्र ( – मात्र दर्शन-ज्ञानमें प्रवर्तित हुई परिणतिरूप) शुद्ध ज्ञान ही एक है — ऐसा जो निष्तुष
( – निर्मल) अनुभवन ही परमार्थ है, क्योंकि वह (अनुभवन) स्वयं शुद्ध द्रव्यका अनुभवनस्वरूप
होनेसे उसीके परमार्थत्व है। इसलिये जो व्यवहारको ही परमार्थबुद्धिसे ( – परमार्थ मानकर)
अनुभव करते हैं, वे समयसारका ही अनुभव नहीं करते; जो परमार्थको परमार्थबुद्धिसे अनुभव करते