Samaysar (Hindi). Kalash: 244-245.

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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
चेतयन्ते, ते एव समयसारं चेतयन्ते
(मालिनी)
अलमलमतिजल्पैर्दुर्विकल्पैरनल्पै-
रयमिह परमार्थश्चेत्यतां नित्यमेकः
स्वरसविसरपूर्णज्ञानविस्फू र्तिमात्रा-
न्न खलु समयसारादुत्तरं किंचिदस्ति
।।२४४।।
(अनुष्टुभ्)
इदमेकं जगच्चक्षुरक्षयं याति पूर्णताम्
विज्ञानघनमानन्दमयमध्यक्षतां नयत् ।।२४५।।
हैं, वे ही समयसारका अनुभव करते हैं
भावार्थ :व्यवहारनयका विषय तो भेदरूप अशुद्धद्रव्य है, इसलिये वह परमार्थ नहीं
है; निश्चयनयका विषय अभेदरूप शुद्धद्रव्य है, इसलिये वही परमार्थ है इसलिये, जो व्यवहारको
ही निश्चय मानकर प्रवर्तन करते हैं वे समयसारका अनुभव नहीं करते; जो परमार्थको परमार्थ
मानकर प्रवर्तन करते हैं वे ही समयसारका अनुभव करते हैं (इसलिये वे ही मोक्षको प्राप्त करते
हैं)
।।४१४।।
‘अधिक कथनसे क्या, एक परमार्थका ही अनुभवन करो’इस अर्थका काव्य कहते
हैं :
श्लोकार्थ :[अतिजल्पैः अनल्पैः दुर्विकल्पैः अलम् अलम् ] बहुत कथनसे और बहुत
दुर्विकल्पोंसे बस होओ, बस होओ; [इह ] यहाँ मात्र इतना ही कहना है कि [अयम् परमार्थः
एकः नित्यम् चेत्यताम् ]
इस एकमात्र परमार्थका ही निरन्तर अनुभव करो; [स्वरस-विसर-पूर्ण-
ज्ञान-विस्फू र्ति-मात्रात् समयसारात् उत्तरं खलु किञ्चित् न अस्ति ]
क्योंकि निजरसके प्रसारसे पूर्ण
जो ज्ञान उसके स्फु रायमान होनेमात्र जो समयसार (
परमात्मा) उससे उच्च वास्तवमें दूसरा कुछ
भी नहीं है (समयसारके अतिरिक्त दूसरा कुछ भी सारभूत नहीं है)
भावार्थ :पूर्णज्ञानस्वरूप आत्माका अनुभव करना चाहिए; इसके अतिरिक्त वास्तवमें
दूसरा कुछ भी सारभूत नहीं है।२४४।
अब, अन्तिम गाथामें यह समयसार ग्रन्थके अभ्यास इत्यादिका फल कहकर
आचार्यभगवान इस ग्रन्थको पूर्ण करते हैं; उसका सूचक श्लोक पहले कहा जा रहा है :
श्लोकार्थ :[आनन्दमयम् विज्ञानघनम् अध्यक्षताम् नयत् ] आनन्दमय विज्ञानघनको