रयमिह परमार्थश्चेत्यतां नित्यमेकः ।
न्न खलु समयसारादुत्तरं किंचिदस्ति ।।२४४।।
भावार्थ : — व्यवहारनयका विषय तो भेदरूप अशुद्धद्रव्य है, इसलिये वह परमार्थ नहीं है; निश्चयनयका विषय अभेदरूप शुद्धद्रव्य है, इसलिये वही परमार्थ है। इसलिये, जो व्यवहारको ही निश्चय मानकर प्रवर्तन करते हैं वे समयसारका अनुभव नहीं करते; जो परमार्थको परमार्थ मानकर प्रवर्तन करते हैं वे ही समयसारका अनुभव करते हैं (इसलिये वे ही मोक्षको प्राप्त करते हैं)।।४१४।।
‘अधिक कथनसे क्या, एक परमार्थका ही अनुभवन करो’ — इस अर्थका काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [अतिजल्पैः अनल्पैः दुर्विकल्पैः अलम् अलम् ] बहुत कथनसे और बहुत दुर्विकल्पोंसे बस होओ, बस होओ; [इह ] यहाँ मात्र इतना ही कहना है कि [अयम् परमार्थः एकः नित्यम् चेत्यताम् ] इस एकमात्र परमार्थका ही निरन्तर अनुभव करो; [स्वरस-विसर-पूर्ण- ज्ञान-विस्फू र्ति-मात्रात् समयसारात् उत्तरं खलु किञ्चित् न अस्ति ] क्योंकि निजरसके प्रसारसे पूर्ण जो ज्ञान उसके स्फु रायमान होनेमात्र जो समयसार ( – परमात्मा) उससे उच्च वास्तवमें दूसरा कुछ भी नहीं है ( – समयसारके अतिरिक्त दूसरा कुछ भी सारभूत नहीं है)।
भावार्थ : — पूर्णज्ञानस्वरूप आत्माका अनुभव करना चाहिए; इसके अतिरिक्त वास्तवमें दूसरा कुछ भी सारभूत नहीं है।२४४।
अब, अन्तिम गाथामें यह समयसार ग्रन्थके अभ्यास इत्यादिका फल कहकर आचार्यभगवान इस ग्रन्थको पूर्ण करते हैं; उसका सूचक श्लोक पहले कहा जा रहा है : —