यः खलु समयसारभूतस्य भगवतः परमात्मनोऽस्य विश्वप्रकाशकत्वेन विश्व- समयस्य प्रतिपादनात् स्वयं शब्दब्रह्मायमाणं शास्त्रमिदमधीत्य, विश्वप्रकाशनसमर्थ- परमार्थभूतचित्प्रकाशरूपमात्मानं निश्चिन्वन् अर्थतस्तत्त्वतश्च परिच्छिद्य, अस्यैवार्थभूते भगवति एकस्मिन् पूर्णविज्ञानघने परमब्रह्मणि सर्वारम्भेण स्थास्यति चेतयिता, स साक्षात्तत्क्षण- ( – शुद्ध परमात्माको, समयसारको) प्रत्यक्ष करता हुआ, [इदम् एकम् अक्षयं जगत्-चक्षुः ] यह एक (अद्वितीय) अक्षय जगत-चक्षु ( – समयप्राभृत) [पूर्णताम् याति ] पूर्णताको प्राप्त होता है।
भावार्थ : — यह समयप्राभूत ग्रन्थ वचनरूपसे तथा ज्ञानरूपसे — दोनों प्रकारसे जगतको अक्षय (अर्थात् जिसका विनाश न हो ऐसे) अद्वितीय नेत्र समान हैं, क्योंकि जैसे नेत्र घटपटादिको प्रत्यक्ष दिखलाता है, उसीप्रकार समयप्राभृत आत्माके शुद्ध स्वरूपको प्रत्यक्ष अनुभवगोचर दिखलाता है।२४५।
अब, भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव इस ग्रन्थको पूर्ण करते हैं, इसलिये उसकी महिमाकें रूपमें उसके अभ्यास इत्यादिका फल इस गाथामें कहते हैं : —
गाथार्थ : — [यः चेतयिता ] जो आत्मा ( – भव्य जीव) [इदं समयप्राभृतम् पठित्वा ] इस समयप्राभृतको पढ़कर, [अर्थतत्त्वतः ज्ञात्वा ] अर्थ और तत्त्वसे जानकर, [अर्थे स्थास्यति ] उसके अर्थमें स्थित होगा, [सः ] वह [उत्तमं सौख्यम् भविष्यति ] उत्तम सौख्यस्वरूप होगा।
टीका : — समयसारभूत इस भगवान परमात्माका — जो कि विश्वका प्रकाशक होनेसे विश्वसमय है उसका — प्रतिपादन करता है, इसलिये जो स्वयं शब्दब्रह्मके समान है ऐसे इस शास्त्रको जो आत्मा भलीभाँति पढ़कर, विश्वको प्रकाशित करनेमें समर्थ ऐसे परमार्थभूत, चैतन्य- प्रकाशरूप आत्माका निश्चय करता हुआ (इस शास्त्रको) अर्थसे और तत्त्वसे जानकर, उसीके