इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यामात्मख्यातौ सर्वविशुद्धज्ञानप्ररूपकः नवमोऽङ्कः ।।
अनन्त धर्म हैं; किन्तु उनमें कितने ही तो साधारण हैं, इसलिये वे अतिव्याप्तियुक्त हैं, उनसे आत्माको पहिचाना नहीं जा सकता; और कुछ (धर्म) पर्यायाश्रित हैं — किसी अवस्थामें होते हैं और किसी अवस्थामें नहीं होते, इसलिये वे अव्याप्तियुक्त हैं, उनसे भी आत्मा नहीं पहिचाना जा सकता। चेतनता यद्यपि आत्माका (अतिव्याप्ति और अव्याप्ति रहित) लक्षण है, तथापि वह शक्तिमात्र है, अदृष्ट है; उसकी व्यक्ति दर्शन और ज्ञान है। उस दर्शन और ज्ञानमें भी ज्ञान साकार है, प्रगट अनुभवगोचर है; इसलिये उसके द्वारा ही आत्मा पहिचाना जा सकता है। इसलिये यहाँ इस ज्ञानको ही प्रधान करके आत्माका तत्त्व कहा है।
यहाँ ऐसा नहीं समझना चाहिए कि ‘आत्माको ज्ञानमात्र तत्त्ववाला कहा है, इसलिये इतना ही परमार्थ है और अन्य धर्म मिथ्या है, वे आत्मामें नहीं हैं, ऐसा सर्वथा एकान्त ग्रहण करनेसे तो मिथ्यादृष्टित्व आ जाता है, विज्ञानाद्वैतवादी बौद्धोंका और वेदान्तियोंका मत आ जाता है; इसलिये ऐसा एकान्त बाधासहित है। ऐसे एकान्त अभिप्रायसे कोई मुनिव्रत भी पाले और आत्माका — ज्ञानमात्रका — ध्यान भी करे, तो भी मिथ्यात्व नहीं कट सकता; मन्द कषायोंके कारण भले ही स्वर्ग प्राप्त हो जाये, किन्तु मोक्षका साधन तो नहीं होता। इसलिये स्याद्वादसे यथार्थ समझना चाहिए।२४६।
मूरत अमूरत जे आनद्रव्य लोकमांहि वे भी ज्ञानरूप नाहीं न्यारे न अभावको;
यहै जानि ज्ञानी जीव आपकूं भजै सदीव ज्ञानरूप सुखतूप आन न लगावको,
कर्म-कर्मफलरूप चेतनाकूं दूरि टारि ज्ञानचेतना अभ्यास करे शुद्ध भावको।