Samaysar (Hindi). End Parishistam Kalash: 247.

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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
[परिशिष्टम्]
(अनुष्टुभ्)
अत्र स्याद्वादशुद्धयर्थं वस्तुतत्त्वव्यवस्थितिः
उपायोपेयभावश्च मनाग्भूयोऽपि चिन्त्यते ।।२४७।।
[परिशिष्ट]
(यहाँ तक भगवत्-कुन्दकुन्दाचार्यकी ४१५ गाथाओंका विवेचन टीकाकार श्री
अमृतचन्द्राचार्यदेवने किया है, और उस विवेचनमें कलशरूप तथा सूचनिकारूपसे २४६
काव्य कहे हैं
अब टीकाकार आचार्यदेव विचारते हैं किइस शास्त्रमें ज्ञानको प्रधान
करके आत्माको ज्ञानमात्र कहते आये हैं, इसलिये कोई यह तर्क करे कि‘जैनमत तो
स्याद्वाद है; तब क्या आत्माको ज्ञानमात्र कहनेसे एकान्त नहीं हो जाता ? अर्थात् स्याद्वादके
साथ विरोध नहीं आता ? और एक ही ज्ञानमें उपायतत्त्व तथा उपेयतत्त्व
दोनों कैसे घटित
होते हैं ?’ ऐसे तर्कका निराकरण करनेके लिये टीकाकार आचार्यदेव यहाँ समयसारकी
‘आत्मख्याति’ टीकाके अन्तमें परिशिष्ट रूपसे कुछ कहते हैं
उसमें प्रथम श्लोक इसप्रकार
है :
श्लोकार्थ :[अत्र ] यहाँ [स्याद्वाद-शुद्धि-अर्थं ] स्याद्वादकी शुद्धिके लिये [वस्तु-
तत्त्व-व्यवस्थितिः ] वस्तुतत्त्वकी व्यवस्था [च ] और [उपाय-उपेय-भावः ] (एक ही ज्ञानमें
उपाय
उपेयत्व कैसे घटित होता है यह बतलानेके लिये) उपाय-उपेयभावका [मनाक् भूयः
अपि ] जरा फि रसे भी [चिन्त्यते ] विचार करते हैं
भावार्थ :वस्तुका स्वरूप सामान्यविशेषात्मक अनेक-धर्मस्वरूप होनेसे वह
स्याद्वादसे ही सिद्ध किया जा सकता है इसप्रकार स्याद्वादकी शुद्धता (प्रमाणिकता,
सत्यता, निर्दोषता, निर्मलता, अद्वितीयता) सिद्ध करनेके लिये इस परिशिष्टमें वस्तुस्वरूपका
विचार किया जाता है
(इसमें यह भी बताया जायेगा कि इस शास्त्रमें आत्माको ज्ञानमात्र
कहा है फि र भी स्याद्वादके साथ विरोध नहीं आता) और दूसरे, एक ही ज्ञानमें साधकत्व
तथा साध्यत्व कैसे बन सकता है यह समझानेके लिये ज्ञानके उपाय-उपेयभावका अर्थात्
साधकसाध्यभावका भी इस परिशिष्टमें विचार किया जायेगा
।२४७।
(अब, प्रथम आचार्यदेव वस्तुस्वरूपके विचार द्वारा स्याद्वाद
को सिद्ध करते हैं :)