(यहाँ तक भगवत्-कुन्दकुन्दाचार्यकी ४१५ गाथाओंका विवेचन टीकाकार श्री अमृतचन्द्राचार्यदेवने किया है, और उस विवेचनमें कलशरूप तथा सूचनिकारूपसे २४६ काव्य कहे हैं। अब टीकाकार आचार्यदेव विचारते हैं कि — इस शास्त्रमें ज्ञानको प्रधान करके आत्माको ज्ञानमात्र कहते आये हैं, इसलिये कोई यह तर्क करे कि — ‘जैनमत तो स्याद्वाद है; तब क्या आत्माको ज्ञानमात्र कहनेसे एकान्त नहीं हो जाता ? अर्थात् स्याद्वादके साथ विरोध नहीं आता ? और एक ही ज्ञानमें उपायतत्त्व तथा उपेयतत्त्व — दोनों कैसे घटित होते हैं ?’ ऐसे तर्कका निराकरण करनेके लिये टीकाकार आचार्यदेव यहाँ समयसारकी ‘आत्मख्याति’ टीकाके अन्तमें परिशिष्ट रूपसे कुछ कहते हैं। उसमें प्रथम श्लोक इसप्रकार है : —
श्लोकार्थ : — [अत्र ] यहाँ [स्याद्वाद-शुद्धि-अर्थं ] स्याद्वादकी शुद्धिके लिये [वस्तु- तत्त्व-व्यवस्थितिः ] वस्तुतत्त्वकी व्यवस्था [च ] और [उपाय-उपेय-भावः ] (एक ही ज्ञानमें उपाय – उपेयत्व कैसे घटित होता है यह बतलानेके लिये) उपाय-उपेयभावका [मनाक् भूयः अपि ] जरा फि रसे भी [चिन्त्यते ] विचार करते हैं।
भावार्थ : — वस्तुका स्वरूप सामान्यविशेषात्मक अनेक-धर्मस्वरूप होनेसे वह स्याद्वादसे ही सिद्ध किया जा सकता है। इसप्रकार स्याद्वादकी शुद्धता ( – प्रमाणिकता, सत्यता, निर्दोषता, निर्मलता, अद्वितीयता) सिद्ध करनेके लिये इस परिशिष्टमें वस्तुस्वरूपका विचार किया जाता है। (इसमें यह भी बताया जायेगा कि इस शास्त्रमें आत्माको ज्ञानमात्र कहा है फि र भी स्याद्वादके साथ विरोध नहीं आता।) और दूसरे, एक ही ज्ञानमें साधकत्व तथा साध्यत्व कैसे बन सकता है यह समझानेके लिये ज्ञानके उपाय-उपेयभावका अर्थात् साधकसाध्यभावका भी इस परिशिष्टमें विचार किया जायेगा।२४७।