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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
वृत्तिपरिणतत्वेन नित्यत्वात्, क्रमप्रवृत्तैकसमयावच्छिन्नानेकवृत्त्यंशपरिणतत्वेनानित्यत्वात्,
तदतत्त्वमेकानेकत्वं सदसत्त्वं नित्यानित्यत्वं च प्रकाशत एव ।
ननु यदि ज्ञानमात्रत्वेऽपि आत्मवस्तुनः स्वयमेवानेकान्तः प्रकाशते, तर्हि
किमर्थमर्हद्भिस्तत्साधनत्वेनाऽनुशास्यतेऽनेकान्तः ? अज्ञानिनां ज्ञानमात्रात्मवस्तुप्रसिद्धयर्थमिति
ब्रूमः । न खल्वनेकान्तमन्तरेण ज्ञानमात्रमात्मवस्त्वेव प्रसिध्यति । तथा हि — इह हि स्वभावत एव
बहुभावनिर्भरे विश्वे सर्वभावानां स्वभावेनाद्वैतेऽपि द्वैतस्य निषेद्धुमशक्यत्वात् समस्तमेव वस्तु
स्वपररूपप्रवृत्तिव्यावृत्तिभ्यामुभयभावाध्यासितमेव । तत्र यदायं ज्ञानमात्रो भावः शेषभावैः सह
स्वरसभरप्रवृत्तज्ञातृज्ञेयसम्बन्धतयाऽनादिज्ञेयपरिणमनात् ज्ञानतत्त्वं पररूपेण प्रतिपद्याज्ञानी भूत्वा
नाशमुपैति, तदा स्वरूपेण तत्त्वं द्योतयित्वा ज्ञातृत्वेन परिणमनाज्ज्ञानी कुर्वन्ननेकान्त एव
तमुद्गमयति १ । यदा तु सर्वं वै खल्विदमात्मेति अज्ञानतत्त्वं स्वरूपेण प्रतिपद्य विश्वोपादानेनात्मानं
प्रवर्तमान, एक समयकी मर्यादावाले अनेक वृत्ति-अंशों-रूपसे परिणतपनेके द्वारा अनित्यत्व है।
(इसप्रकार ज्ञानमात्र आत्मवस्तुको भी, तत्-अतत्पना इत्यादि दो-दो विरुद्ध शक्तियाँ स्वयमेव
प्रकाशित होती हैं, इसलिये अनेकान्त स्वयमेव प्रकाशित होता है।)
(प्रश्न — ) यदि आत्मवस्तुको, ज्ञानमात्रता होने पर भी, स्वयमेव अनेकान्त प्रकाशता
है, तब फि र अर्हन्त भगवान उसके साधनके रूपमें अनेकान्तका (-स्याद्वादका) उपदेश क्यों
देते हैं ?
(उत्तर — ) अज्ञानियोंके ज्ञानमात्र आत्मवस्तुकी प्रसिद्धि करनेके लिये उपदेश देते हैं
ऐसा हम कहते हैं। वास्तवमें अनेकान्त ( – स्याद्वाद) के बिना ज्ञानमात्र आत्मवस्तु ही प्रसिद्ध
नहीं हो सकती। इसीको इसप्रकार समझाते हैं : —
स्वभावसे ही बहुतसे भावोंसे भरे हुए इस विश्वमें सर्व भावोंका स्वभावसे अद्वैत होने
पर भी, द्वैतका निषेध करना अशक्य होनेसे समस्त वस्तुस्वरूपमें प्रवृत्ति और पररूपसे
व्यावृत्तिके द्वारा दोनों भावोंसे अध्यासित है (अर्थात् समस्त वस्तु स्वरूपमें प्रवर्तमान होनेसे
और पररूपसे भिन्न रहनेसे प्रत्येक वस्तुमें दोनों भाव रह रहे हैं)। वहाँ, जब यह ज्ञानमात्र
भाव (-आत्मा), शेष (बाकीके) भावोंके साथ निज रसके भारसे प्रवर्तित ज्ञाता – ज्ञेयके
सम्बन्धके कारण और अनादि कालसे ज्ञेयोंके परिणमनके कारण ज्ञानतत्त्वको पररूप मानकर
(अर्थात् ज्ञेयरूपसे अंगीकार करके) अज्ञानी होता हुआ नाशको प्राप्त होता है, तब (उसे
ज्ञानमात्र भावका) स्व-रूपसे ( – ज्ञानरूपसे) तत्पना प्रकाशित करके (अर्थात् ज्ञान ज्ञानरूपसे
ही है ऐसा प्रगट करके), ज्ञातारूपसे परिणमनके कारण ज्ञानी करता हुआ, अनेकान्त ही
( – स्याद्वाद ही) उसका उद्धार करता है — नाश नहीं होने देता।१।