कहानजैनशास्त्रमाला ]
परिशिष्ट
५९५
नाशयति, तदा पररूपेणातत्त्वं द्योतयित्वा विश्वाद्भिन्नं ज्ञानं दर्शयन्ननेकान्त एव नाशयितुं न
ददाति २ । यदानेकज्ञेयाकारैः खण्डितसकलैकज्ञानाकारो नाशमुपैति, तदा द्रव्येणैकत्वं
द्योतयन्ननेकान्त एव तमुज्जीवयति ३ । यदा त्वेकज्ञानाकारोपादानायानेकज्ञेयाकार-
त्यागेनात्मानं नाशयति, तदा पर्यायैरनेकत्वं द्योतयन्ननेकान्त एव नाशयितुं न ददाति ४ ।
यदा ज्ञायमानपरद्रव्यपरिणमनाद् ज्ञातृद्रव्यं परद्रव्यत्वेन प्रतिपद्य नाशमुपैति, तदा स्वद्रव्येण
सत्त्वं द्योतयन्ननेकान्त एव तमुज्जीवयति ५ । यदा तु सर्वद्रव्याणि अहमेवेति परद्रव्यं
ज्ञातृद्रव्यत्वेन प्रतिपद्यात्मानं नाशयति, तदा परद्रव्येणासत्त्वं द्योतयन्ननेकान्त एव नाशयितुं
न ददाति ६ । यदा परक्षेत्रगतज्ञेयार्थपरिणमनात् परक्षेत्रेण ज्ञानं सत् प्रतिपद्य
और जब वह ज्ञानमात्र भाव ‘वास्तवमें यह सब आत्मा है’ इसप्रकार अज्ञानतत्त्वको स्व-
रूपसे (ज्ञानस्वरूपसे) मानकर — अंगीकार करके विश्वके ग्रहण द्वारा अपना नाश करता है
( – सर्व जगतको निजरूप मानकर उसका ग्रहण करके जगत्से भिन्न ऐसे अपनेको नष्ट करता है),
तब (उस ज्ञानमात्र भावका) पररूपसे अतत्पना प्रकाशित करके (अर्थात् ज्ञान पररूप नहीं है यह
प्रगट करके) विश्वसे भिन्न ज्ञानको दिखाता हुआ, अनेकान्त ही उसे अपना ( – ज्ञानमात्र भावका)
नाश नहीं करने देता।२।
जब यह ज्ञानमात्र भाव अनेक ज्ञेयाकारोंके द्वारा ( – ज्ञेयोंके आकारों द्वारा) अपना सकल
(अखण्ड, सम्पूर्ण) एक ज्ञान-आकार खण्डित ( – खण्डखण्डरूप) हुआ मानकर नाशको प्राप्त
होता है, तब (उस ज्ञानमात्र भावका) द्रव्यसे एकत्व प्रकाशित करता हुआ, अनेकान्त ही उसे
जीवित रखता है — नष्ट नहीं होने देता।३।
और जब यह ज्ञानमात्र भाव एक ज्ञान-आकारका ग्रहण करनेके लिये अनेक ज्ञेयाकारोंके
त्याग द्वारा अपना नाश करता है (अर्थात् ज्ञानमें जो अनेक ज्ञेयोंके आकार आते हैं उनका त्याग
करके अपनेको नष्ट करता है), तब (उस ज्ञानमात्र भावका) पर्यायोंसे अनेकत्व प्रकाशित करता
हुआ, अनेकान्त ही उसे अपना नाश नहीं करने देता।४।
जब यह ज्ञानमात्र भाव, जाननेमें आनेवाले ऐसे परद्रव्योंके परिणमनके कारण ज्ञातृद्रव्यको
परद्रव्यरूपसे मानकर — अंगीकार करके नाशको प्राप्त होता है तब, (उस ज्ञानमात्र भावका)
स्वद्रव्यसे सत्त्व प्रकाशित करता हुआ, अनेकान्त ही उसे जिलाता है — नष्ट नहीं होने देता।५।
और जब वह ज्ञानमात्र भाव ‘सर्व द्रव्य मैं ही हूँ (अर्थात् सर्व द्रव्य आत्मा ही हैं)’
इसप्रकार परद्रव्यको ज्ञातृद्रव्यरूपसे मानकर — अंगीकार करके अपना नाश करता है, तब (उस
ज्ञानमात्र भावका) परद्रव्यसे असत्त्व प्रकाशित करता हुआ, (अर्थात् आत्मा परद्रव्यरूपसे नहीं है,
इसप्रकार प्रगट करता हुआ) अनेकान्त ही उसे अपना नाश नहीं करने देता।६।