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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
नाशमुपैति, तदा स्वक्षेत्रेणास्तित्वं द्योतयन्ननेकान्त एव तमुज्जीवयति ७ । यदा तु स्वक्षेत्रे
भवनाय परक्षेत्रगतज्ञेयाकारत्यागेन ज्ञानं तुच्छीकुर्वन्नात्मानं नाशयति, तदा स्वक्षेत्र
एव ज्ञानस्य परक्षेत्रगतज्ञेयाकारपरिणमनस्वभावत्वात्परक्षेत्रेण नास्तित्वं द्योतयन्ननेकान्त
एव नाशयितुं न ददाति ८ । यदा पूर्वालम्बितार्थविनाशकाले ज्ञानस्यासत्त्वं प्रतिपद्य
नाशमुपैति, तदा स्वकालेन सत्त्वं द्योतयन्ननेकान्त एव तमुज्जीवयति ९ । यदा त्वर्थालम्बन-
काल एव ज्ञानस्य सत्त्वं प्रतिपद्यात्मानं नाशयति, तदा परकालेनासत्त्वं द्योतयन्ननेकान्त
एव नाशयितुं न ददाति १० । यदा ज्ञायमानपरभावपरिणमनात् ज्ञायकभावं परभावत्वेन
प्रतिपद्य नाशमुपैति, तदा स्वभावेन सत्त्वं द्योतयन्ननेकान्त एव तमुज्जीवयति ११ । यदा
तु सर्वे भावा अहमेवेति परभावं ज्ञायकभावत्वेन प्रतिपद्यात्मानं नाशयति, तदा परभावेना-
जब यह ज्ञानमात्र भाव परक्षेत्रगत (-परक्षेत्रमें रहे हुए) ज्ञेय पदार्थोंके परिणमनके कारण
परक्षेत्रसे ज्ञानको सत् मानकर — अंगीकार करके नाशको प्राप्त होता है, तब (उस ज्ञानमात्र भावका)
स्वक्षेत्रसे अस्तित्व प्रकाशित करता हुआ, अनेकान्त ही उसे जिलाता है — नष्ट नहीं होने देता।७।
और जब यह ज्ञानमात्र भाव स्वक्षेत्रमें होनेके लिये ( – रहनेके लिये, परिणमनेके लिए),
परक्षेत्रगत ज्ञेयोंके आकारोंके त्याग द्वारा (अर्थात् ज्ञानमें जो परक्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेंयोका आकार आता
है उनका त्याग करके) ज्ञानको तुच्छ करता हुआ अपना नाश करता है, तब स्वक्षेत्रमें रहकर ही
परक्षेत्रगत ज्ञेयोंके आकाररूपसे परिणमन करनेका ज्ञानका स्वभाव होनेसे (उस ज्ञानमात्र भावका)
परक्षेत्रसे नास्तित्व प्रकाशित करता हुआ, अनेकान्त ही उसे अपना नाश नहीं करने देता।८।
जब यह ज्ञानमात्र भाव पूर्वालंबित पदार्थोके विनाशकालमें ( – पूर्वमें जिनका आलम्बन
किया था ऐसे ज्ञेय पदार्थोके विनाशके समय) ज्ञानका असत्पना मानकर — अंगीकार करके
नाशको प्राप्त होता है, तब (उस ज्ञानमात्र भावका) स्वकालसे (-ज्ञानके कालसे) सत्पना
प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे जिलाता है — नष्ट नहीं होने देता।९।
और जब वह ज्ञानमात्र भाव पदार्थोंके आलम्बन कालमें ही ( – मात्र ज्ञेय पदार्थोंको जानते
समय ही) ज्ञानका सत्पना मानकर — अंगीकार करके अपना नाश करता है, तब (उस ज्ञानमात्र
भावका) परकालसे ( – ज्ञेयके कालसे) असत्पना प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे अपना
नाश नहीं करने देता।१०।
जब यह ज्ञानमात्र भाव, जाननेमें आते हुए परभावोंके परिणमनके कारण, ज्ञायकस्वभावको
परभावरूपसे मानकर — अंगीकार करके नाशको प्राप्त होता है, तब (उस ज्ञानमात्र भावका) स्व-
भावसे सत्पना प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे जिलाता है — नष्ट नहीं होने देता।११।
और जब वह ज्ञानमात्र भाव ‘सर्व भाव मैं ही हूँ’ इसप्रकार परभावको ज्ञायकभावरूपसे