एव तमुज्जीवयति १३ । यदा तु नित्यज्ञानसामान्योपादानायानित्यज्ञानविशेषत्यागेनात्मानं
विश्रान्तं पररूप एव परितो ज्ञानं पशोः सीदति ।
र्दूरोन्मग्नघनस्वभावभरतः पूर्णं समुन्मज्जति ।।२४८।।
मानकर — अंगीकार करके अपना नाश करता है, तब (उस ज्ञानमात्र भावका) परभावसे असत्पना प्रकाशित करता हुआ, अनेकान्त ही उसे अपना नाश नहीं करने देता।१२।
जब यह ज्ञानमात्र भाव अनित्यज्ञानविशेषोंके द्वारा अपना नित्य ज्ञानसामान्य खण्डित हुआ मानकर नाशको प्राप्त होता है, तब (उस ज्ञानमात्र भावका) ज्ञानसामान्यरूपसे नित्यत्व प्रकाशित करता हुआ, अनेकान्त ही उसे जिलाता है — नष्ट नहीं होने देता।१३।
और जब यह ज्ञानमात्र भाव नित्य ज्ञानसामान्यका ग्रहण करनेके लिये अनित्य ज्ञानविशेषोंके त्यागके द्वारा अपना नाश करता है (अर्थात् ज्ञानके विशेषोंका त्याग करके अपनेको नष्ट करता है), तब (उस ज्ञानमात्र भावका) ज्ञानविशेषरूपसे अनित्यत्व प्रकाशित करता हुआ, अनेकान्त ही उसे अपना नाश नहीं करने देता।१४।
(यहाँ तत्-अतत्के २ भंग, एक-अनेकके २ भंग, सत्-असत्के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसे ८ भंग, और नित्य-अनिन्यके २ भंग — इसप्रकार सब मिलाकर १४ भंग हुए। इन चौदह भंगोंमें यह बताया है कि — एकान्तसे ज्ञानमात्र आत्माका अभाव होता है और अनेकान्तसे आत्मा जीवित रहता है; अर्थात् एकान्तसे आत्मा जिस स्वरूप है उस स्वरूप नहीं समझा जाता, स्वरूपमें परिणमित नहीं होता, और अनेकान्तसे वह वास्तविक स्वरूपसे समझा जाता है, स्वरूपमें परिणमित होता है।)