Samaysar (Hindi). Kalash: 249 2.

< Previous Page   Next Page >


Page 598 of 642
PDF/HTML Page 631 of 675

 

background image
५९८
समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
(शार्दूलविक्रीडित)
विश्वं ज्ञानमिति प्रतर्क्य सकलं द्रष्ट्वा स्वतत्त्वाशया
भूत्वा विश्वमयः पशुः पशुरिव स्वच्छन्दमाचेष्टते
यत्तत्तत्पररूपतो न तदिति स्याद्वाददर्शी पुन-
र्विश्वाद्भिन्नमविश्वविश्वघटितं तस्य स्वतत्त्वं स्पृशेत्
।।२४९।।
[उज्झित-निज-प्रव्यक्ति-रिक्तीभवद् ] अपनी व्यक्ति (प्रगटता) को छोड़ देनेसे रिक्त (शून्य)
हुआ, [परितः पररूपे एव विश्रान्तं ] सम्पूर्णतया पररूपमें ही विश्रांत (अर्थात् पररूपके ऊ पर ही
आधार रखता हुआ) ऐसे [पशोः ज्ञानं ] पशुका ज्ञान (
पशुवत् एकान्तवादीका ज्ञान) [सीदति ]
नाशको प्राप्त होता है; [स्याद्वादिनः तत् पुनः ] और स्याद्वादीका ज्ञान तो, [‘यत् तत् तत् इह
स्वरूपतः तत्’ इति ]
‘जो तत् है वह स्वरूपसे तत् है (अर्थात् प्रत्येक तत्त्वको
वस्तुको स्वरूपसे
तत्पना है)’ ऐसी मान्यताके कारण [दूरउन्मग्न-घन-स्वभाव-भरतः ] अत्यन्त प्रगट हुए
ज्ञानघनरूप स्वभावके भारसे, [पूर्णं समुन्मज्जति ] सम्पूर्ण उदित (प्रगट) होता है
भावार्थ :कोई सर्वथा एकान्तवादी तो यह मानता है किघटज्ञान घटके आधारसे
ही होता है, इसलिये ज्ञान सब प्रकारसे ज्ञेयों पर ही आधार रखता है ऐसा माननेवाले
एकान्तवादीके ज्ञानको तो ज्ञेय पी गये हैं, ज्ञान स्वयं कुछ नहीं रहा स्याद्वादी तो ऐसा मानते हैं
किज्ञान अपने स्वरूपसे तत्स्वरूप (ज्ञानस्वरूप) ही है, ज्ञेयाकार होने पर भी ज्ञानत्वको नहीं
छोड़ता ऐसी यथार्थ अनेकान्त समझके कारण स्याद्वादीको ज्ञान (अर्थात् ज्ञानस्वरूप आत्मा)
प्रगट प्रकाशित होता है
इसप्रकार स्वरूपसे तत्पनेका भंग कहा है।२४८।
(अब, दूसरे भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं :)
श्लोकार्थ :[पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकन्तवादी अज्ञानी, [‘विश्वं ज्ञानम्’ इति
प्रतर्क्य ] ‘विश्व ज्ञान है (अर्थात् सर्व ज्ञेयपदार्थ आत्मा हैं)’ ऐसा विचार करके [सकलं स्वतत्त्व-
आशया दृष्टवा ]
सबको (
समस्त विश्वको) निजतत्त्वकी आशासे देखकर [विश्वमयः भूत्वा ]
विश्वमय (समस्त ज्ञेयपदार्थमय) होकर, [पशुः इव स्वच्छन्दम् आचेष्टते ] पशुकी भाँति
स्वच्छंदतया चेष्टा करता हैप्रवृत्त होता है; [पुनः ] और [स्याद्वाददर्शी ] स्याद्वादका देखनेवाला
तो यह मानता है कि[‘यत् तत् तत् पररूपतः न तत्’ इति ] ‘जो तत् है वह पररूपसे तत्
नहीं है (अर्थात् प्रत्येक तत्त्वको स्वरूपसे तत्पना होने पर भी पररूपसे अतत्पना है),’ इसलिये
[विश्वात् भिन्नम् अविश्वविश्वघटितं ] विश्वसे भिन्न ऐसे तथा विश्वसे (
विश्वके निमित्तसे)