कहानजैनशास्त्रमाला ]
परिशिष्ट
५९९
(शार्दूलविक्रीडित)
बाह्यार्थग्रहणस्वभावभरतो विष्वग्विचित्रोल्लस-
ज्ज्ञेयाकारविशीर्णशक्ति रभितस्त्रुटयन्पशुर्नश्यति ।
एकद्रव्यतया सदाप्युदितया भेदभ्रमं ध्वंसय-
न्नेकं ज्ञानमबाधितानुभवनं पश्यत्यनेकान्तवित् ।।२५०।।
रचित होने पर भी विश्वरूप न होनेवाले ऐसे (अर्थात् समस्त ज्ञेय वस्तुओंके आकाररूप होने पर
भी समस्त ज्ञेय वस्तुसे भिन्न ऐसे) [तस्य स्वतत्त्वं स्पृशेत् ] अपने स्वतत्त्वका स्पर्श — अनुभव
करता है।
भावार्थ : — एकान्तवादी यह मानता है कि — विश्व (समस्त वस्तुऐं) ज्ञानरूप अर्थात्
निजरूप है। इसप्रकार निजको और विश्वको अभिन्न मानकर, अपनेको विश्वमय मानकर,
एकान्तवादी, पशुकी भाँति हेय-उपादेयके विवेकके बिना सर्वत्र स्वच्छन्दतया प्रवृत्ति करता है।
स्याद्वादी तो यह मानता है कि — जो वस्तु अपने स्वरूपसे तत्स्वरूप है, वही वस्तु परके स्वरूपसे
अतत्स्वरूप है; इसलिये ज्ञान अपने स्वरूपसे तत्स्वरूप है, परन्तु पर ज्ञेयोंके स्वरूपसे अतत्स्वरूप
है अर्थात् पर ज्ञेयोंके आकाररूप होने पर भी उनसे भिन्न है।
इसप्रकार पररूपसे अतत्पनेका भंग कहा है।२४९।
(अब, तीसरे भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं : — )
श्लोकार्थ : — [पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, [बाह्य-अर्थ-ग्रहण-
स्वभाव-भरतः ] बाह्य पदार्थोंको ग्रहण करनेके (ज्ञानके) स्वभावकी अतिशयताके कारण,
[विष्वग्-विचित्र-उल्लसत्-ज्ञेयाकार-विशीर्ण-शक्तिः ] चारों ओर (सर्वत्र) प्रगट होनेवाले अनेक
प्रकारके ज्ञेयाकारोंसे जिसकी शक्ति विशीर्ण ( – छिन्न-भिन्न) हो गई ऐसा होकर (अर्थात् अनेक
ज्ञेयोंके आकार ज्ञानमें ज्ञात होने पर ज्ञानकी शक्तिको छिन्न-भिन्न — खंड-खंडरूप — हो गई
मानकर) [अभितः त्रुटयन् ] सम्पूर्णतया खण्ड-खण्डरूप होता हुआ (अर्थात् खंड-खंडरूप —
अनेकरूप — होता हुआ) [नश्यति ] नष्ट हो जाता है; [अनेकान्तवित् ] और अनेकान्तका
जानकार तो, [सदा अपि उदितया एक – द्रव्यतया ] सदैव उदित ( – प्रकाशमान) एक द्रव्यत्वके
कारण [भेदभ्रमं ध्वंसयन् ] भेदके भ्रमको नष्ट करता हुआ (अर्थात् ज्ञेयोंके भेदसे ज्ञानमें सर्वथा
भेद पड़ जाता है ऐसे भ्रमको नाश करता हुआ), [एकम् अबाधित-अनुभवनं ज्ञानम् ] जो एक
है ( – सर्वथा अनेक नहीं है) और जिसका अनुभवन निर्बाध है ऐसे ज्ञानको [पश्यति ] देखता
है — अनुभव करता है ।