(शार्दूलविक्रीडित)
ज्ञेयाकारकलंक मेचकचिति प्रक्षालनं कल्पय-
न्नेकाकारचिकीर्षया स्फु टमपि ज्ञानं पशुर्नेच्छति ।
वैचित्र्येऽप्यविचित्रतामुपगतं ज्ञानं स्वतःक्षालितं
पर्यायैस्तदनेकतां परिमृशन् पश्यत्यनेकान्तवित् ।।२५१।।
६००
समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
भावार्थ : — ज्ञान है वह ज्ञेयोंके आकाररूप परिणमित होनेसे अनेक दिखाई देता है,
इसलिये सर्वथा एकान्तवादी उस ज्ञानको सर्वथा अनेक — खण्ड-खण्डरूप — देखता हुआ ज्ञानमय
ऐसे निजका नाश करता है; और स्याद्वादी तो ज्ञानको, ज्ञेयाकार होने पर भी, सदा उदयमान
द्रव्यत्वके द्वारा एक देखता है ।
इसप्रकार एकत्वका भंग कहा है ।२५०।
(अब, चौथे भंगका फलशरूप काव्य कहा जाता हैः — )
श्लोकार्थ : — [पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, [ज्ञेयाकार-कलङ्क-
मेचक-चिति प्रक्षालनं कल्पयन् ] ज्ञेयाकाररूपी कलङ्कसे (अनेकाकाररूप) मलिन ऐसे चेतनमें
प्रक्षालनकी कल्पना करता हुआ (अर्थात् चेतनकी अनेकाकाररूप मलिनताको धो डालनेकी
कल्पना करता हुआ), [एकाकार-चिकीर्षया स्फु टम् अपि ज्ञानं न इच्छति ] एकाकार करनेकी
इच्छासे ज्ञानको — यद्यपि वह ज्ञान अनेकाकाररूपसे प्रगट है तथापि — नहीं चाहता (अर्थात्
ज्ञानको सर्वथा एकाकार मानकर ज्ञानका अभाव करता है); [अनेकान्तवित् ] और अनेकान्तका
जाननेवाला तो, [पर्यायैः तद्-अनेकतां परिमृशन् ] पर्यायोंसे ज्ञानकी अनेकताको जानता
(अनुभवता) हुआ, [वैचित्र्ये अपि अविचित्रताम् उपगतं ज्ञानम् ] विचित्र होने पर भी अविचित्रताको
प्राप्त (अर्थात् अनेकरूप होने पर भी एकरूप) ऐसे ज्ञानके [स्वतः क्षालितं ] स्वतः क्षालित
(स्वयमेव धोया हुआ शुद्ध) [पश्यति ] अनुभव करता है
।
भावार्थ : — एकान्तवादी ज्ञेयाकाररूप (अनेकाकाररूप) ज्ञानको मलिन जानकर, उसे
धोकर — उसमेंसे ज्ञेयाकारोंको दूर करके, ज्ञानको ज्ञेयाकारोंसे रहित एक-आकाररूप करनेको
चाहता हुआ, ज्ञानका नाश करता है; और अनेकान्ती तो सत्यार्थ वस्तुस्वभावको जानता है, इसलिये
ज्ञानका स्वरूपसे ही अनेकाकारपना मानता है।
इसप्रकार अनेकत्वका भंग कहा है।२५१।
(अब, पाँचवें भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं : — )