न्नेकाकारचिकीर्षया स्फु टमपि ज्ञानं पशुर्नेच्छति ।
पर्यायैस्तदनेकतां परिमृशन् पश्यत्यनेकान्तवित् ।।२५१।।
भावार्थ : — ज्ञान है वह ज्ञेयोंके आकाररूप परिणमित होनेसे अनेक दिखाई देता है, इसलिये सर्वथा एकान्तवादी उस ज्ञानको सर्वथा अनेक — खण्ड-खण्डरूप — देखता हुआ ज्ञानमय ऐसे निजका नाश करता है; और स्याद्वादी तो ज्ञानको, ज्ञेयाकार होने पर भी, सदा उदयमान द्रव्यत्वके द्वारा एक देखता है ।
श्लोकार्थ : — [पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी, [ज्ञेयाकार-कलङ्क- मेचक-चिति प्रक्षालनं कल्पयन् ] ज्ञेयाकाररूपी कलङ्कसे (अनेकाकाररूप) मलिन ऐसे चेतनमें प्रक्षालनकी कल्पना करता हुआ (अर्थात् चेतनकी अनेकाकाररूप मलिनताको धो डालनेकी कल्पना करता हुआ), [एकाकार-चिकीर्षया स्फु टम् अपि ज्ञानं न इच्छति ] एकाकार करनेकी इच्छासे ज्ञानको — यद्यपि वह ज्ञान अनेकाकाररूपसे प्रगट है तथापि — नहीं चाहता (अर्थात् ज्ञानको सर्वथा एकाकार मानकर ज्ञानका अभाव करता है); [अनेकान्तवित् ] और अनेकान्तका जाननेवाला तो, [पर्यायैः तद्-अनेकतां परिमृशन् ] पर्यायोंसे ज्ञानकी अनेकताको जानता (अनुभवता) हुआ, [वैचित्र्ये अपि अविचित्रताम् उपगतं ज्ञानम् ] विचित्र होने पर भी अविचित्रताको प्राप्त (अर्थात् अनेकरूप होने पर भी एकरूप) ऐसे ज्ञानके [स्वतः क्षालितं ] स्वतः क्षालित (स्वयमेव धोया हुआ शुद्ध) [पश्यति ] अनुभव करता है
भावार्थ : — एकान्तवादी ज्ञेयाकाररूप (अनेकाकाररूप) ज्ञानको मलिन जानकर, उसे धोकर — उसमेंसे ज्ञेयाकारोंको दूर करके, ज्ञानको ज्ञेयाकारोंसे रहित एक-आकाररूप करनेको चाहता हुआ, ज्ञानका नाश करता है; और अनेकान्ती तो सत्यार्थ वस्तुस्वभावको जानता है, इसलिये ज्ञानका स्वरूपसे ही अनेकाकारपना मानता है।