Samaysar (Hindi). Kalash: 255-256 8,9.

< Previous Page   Next Page >


Page 603 of 642
PDF/HTML Page 636 of 675

 

कहानजैनशास्त्रमाला ]
परिशिष्ट
६०३
(शार्दूलविक्रीडित)
स्वक्षेत्रस्थितये पृथग्विधपरक्षेत्रस्थितार्थोज्झनात्
तुच्छीभूय पशुः प्रणश्यति चिदाकारान् सहार्थैर्वमन्
स्याद्वादी तु वसन् स्वधामनि परक्षेत्रे विदन्नास्तितां
त्यक्तार्थोऽपि न तुच्छतामनुभवत्याकारकर्षी परान्
।।२५५।।
(शार्दूलविक्रीडित)
पूर्वालम्बितबोध्यनाशसमये ज्ञानस्य नाशं विदन्
सीदत्येव न किंचनापि कलयन्नत्यन्ततुच्छः पशुः
अस्तित्वं निजकालतोऽस्य कलयन् स्याद्वादवेदी पुनः
पूर्णस्तिष्ठति बाह्यवस्तुषु मुहुर्भूत्वा विनश्यत्स्वपि
।।२५६।।

श्लोकार्थ :[पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकान्तवादी अज्ञानी, [स्वक्षेत्रस्थितये पृथग्विध-परक्षेत्र-स्थित-अर्थ-उज्झनात् ] स्वक्षेत्रमें रहनेके लिये भिन्न-भिन्न परक्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेय पदार्थोंको छोड़नेसे, [अर्थैः सह चिद् आकारान् वमन् ] ज्ञेय पदार्थोंके साथ चैतन्यके आकारोंका भी वमन करता हुआ (अर्थात् ज्ञेय पदार्थोंके निमित्तसे चैतन्यमें जो आकार होता है उनको भी छोड़ता हुआ) [तुच्छीभूय ] तुच्छ होकर [प्रणश्यति ] नाशको प्राप्त होता है; [स्याद्वादी तु ] और स्याद्वादी तो [स्वधामनि वसन् ] स्वक्षेत्रमें रहता हुआ, [परक्षेत्रे नास्तितां विदन् ] परक्षेत्रमें अपना नास्तित्व जानता हुआ [त्यक्त-अर्थः अपि ] (परक्षेत्रमें रहे हुए) ज्ञेय पदार्थोंको छोड़ता हुआ भी [परान् आकारकर्षी ] वह पर पदार्थोंमेंसे चैतन्यके आकारोंको खींचता है (अर्थात् ज्ञेयपदार्थोंके निमित्तसे होनेवाले चैतन्यके आकारोंको नहीं छोड़ता) [तुच्छताम् अनुभवति न ] इसलिये तुच्छताको प्राप्त नहीं होता

भावार्थ :‘परक्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेय पदार्थोंके आकाररूप चैतन्यके आकार होते हैं, उन्हें यदि मैं अपना बनाऊँगा तो स्वक्षेत्रमें ही रहनेके स्थान पर परक्षेत्रमें भी व्याप्त हो जाऊँगा’ ऐसा मानकर अज्ञानी एकान्तवादी परक्षेत्रमें रहे हुए ज्ञेय पदार्थोंके साथ ही साथ चैतन्यके आकारोंको भी छोड़ देता है; इसप्रकार स्वयं चैतन्यके आकारोंसे रहित तुच्छ होता है, नाशको प्राप्त होता है और स्याद्वादी तो स्वक्षेत्रमें रहता हुआ, परक्षेत्रमें अपने नास्तित्वको जानता हुआ, ज्ञेय पदार्थोंको छोड़कर भी चैतन्यके आकारोंको नहीं छोड़ता; इसलिये वह तुच्छ नहीं होता, नष्ट नहीं होता

इसप्रकार परक्षेत्रकी अपेक्षासे नास्तित्वका भंग कहा है।२५५।
(अब, नववें भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं :)
श्लोकार्थ :[पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकान्तवादी अज्ञानी, [पूर्व-आलम्बित-