र्ज्ञेयालम्बनलालसेन मनसा भ्राम्यन् पशुर्नश्यति ।
स्तिष्ठत्यात्मनिखातनित्यसहजज्ञानैकपुंजीभवन् ।।२५७।।
जानता हुआ, [न किञ्चन अपि कलयन् ] और इसप्रकार ज्ञानको कुछ भी (वस्तु) न जानता
हुआ (अर्थात् ज्ञानवस्तुका अस्तित्व ही नहीं मानता हुआ), [अत्यन्ततुच्छः ] अत्यन्त तुच्छ होता
हुआ [सीदति एव ] नाशको प्राप्त होता है; [स्याद्वादवेदी पुनः ] और स्याद्वादका ज्ञाता तो [अस्य
निज-कालतः अस्तित्वं कलयन् ] आत्माका निज कालसे अस्तित्व जानता हुआ, [बाह्यवस्तुषु मुहुः
भूत्वा विनश्यत्सु अपि ] बाह्य वस्तुएं बारम्बार होकर नाशको प्राप्त होती हैं, फि र भी [पूर्णः तिष्ठति ]
स्वयं पूर्ण रहता है
भावार्थ : — पहले जिन ज्ञेय पदार्थोंको जाने थे वे उत्तर कालमें नष्ट हो गये; उन्हें देखकर एकान्तवादी अपने ज्ञानका भी नाश मानकर अज्ञानी होता हुआ आत्माका नाश करता है। और स्याद्वादी तो, ज्ञेय पदार्थोके नष्ट होने पर भी, अपना अस्तित्व अपने कालसे ही मानता हुआ नष्ट नहीं होता।
श्लोकार्थ : — [पशुः ] पशु अर्थात् अज्ञानी एकान्तवादी, [अर्थ-आलम्बन-काले एव ज्ञानस्य सत्त्वं कलयन् ] ज्ञेयपदार्थोंके आलम्बन कालमें ही ज्ञानका अस्तित्व जानता हुआ, [बहिः ज्ञेय-आलम्बन-लालसेन-मनसा भ्राम्यन् ] बाह्य ज्ञेयोंके आलम्बनकी लालसावाले चित्तसे (बाहर) भ्रमण करता हुआ [नश्यति ] नाशको प्राप्त होता है; [स्याद्वादवेदी पुनः ] और स्याद्वादका ज्ञाता तो [परकालतः अस्य नास्तित्वं कलयन् ] पर कालसे आत्माका नास्तित्व जानता हुआ, [आत्म- निखात-नित्य-सहज-ज्ञान-एक-पुञ्जीभवन् ] आत्मामें दृढ़तया रहा हुआ नित्य सहज ज्ञानके पुंजरूप वर्तता हुआ [तिष्ठति ] टिकता है — नष्ट नहीं होता।
भावार्थ : — एकान्तवादी ज्ञेयोंके आलम्बनकालमें ही ज्ञानका सत्पना जानता है, इसलिये ज्ञेयोंके आलम्बनमें मनको लगाकर बाहर भ्रमण करता हुआ नष्ट हो जाता है। स्याद्वादी तो पर ज्ञेयोंके कालसे अपने नास्तित्वको जानता है, अपने ही कालसे अपने अस्तित्वको जानता है; इसलिये ज्ञेयोंसे भिन्न ऐसा ज्ञानके पुंजरूप वर्तता हुआ नाशको प्राप्त नहीं होता।