निर्ज्ञानात्क्षणभंगसंगपतितः प्रायः पशुर्नश्यति ।
टंकोत्कीर्णघनस्वभावमहिम ज्ञानं भवन् जीवति ।।२६०।।
ज्ञेय पदार्थोंके भावरूप है, ऐसा मानकर) शुद्ध स्वभावसे च्युत होता हुआ, [अनिवारितः सर्वत्र अपि
स्वैरं गतभयः क्रीडति ] किसी परभावको शेष रखे बिना सर्व परभावोंमें स्वच्छन्दतापूर्वक निर्भयतासे
(निःशंकतया) क्रीड़ा करता है; [स्याद्वादी तु ] और स्याद्वादी तो [स्वस्य स्वभावं भरात् आरूढः ]
अपने स्वभावमें अत्यन्त आरूढ़ होता हुआ, [परभाव-भाव-विरह-व्यालोक-निष्कम्पितः ]
परभावरूप भवनके अभावकी दृष्टिके कारण (अर्थात् आत्मा परद्रव्योंके भावरूपसे नहीं है — ऐसा
भावार्थ : — एकान्तवादी सर्व परभावोंको निजरूप जानकर अपने शुद्ध स्वभावसे च्युत होता हुआ सर्वत्र (सर्व परभावोंमें) स्वेच्छाचारितासे निःशंकतया प्रवृत्त होता है; और स्याद्वादी तो, परभावोंको जानता हुआ भी, अपने शुद्ध ज्ञानस्वभावको सर्व परभावोंसे भिन्न अनुभव करता हुआ, शोभित होता है।
श्लोकार्थ : — [पशुः ] पशु अर्थात् एकान्तवादी अज्ञानी, [प्रादुर्भाव-विराम-मुद्रित- वहत्-ज्ञान-अंश-नाना-आत्मना निर्ज्ञानात् ] उत्पाद-व्ययसे लक्षित ऐसे बहते ( – परिणमित होते) हुए ज्ञानके अंशरूप अनेकात्मकताके द्वारा ही (आत्माका) निर्णय अर्थात् ज्ञान करता हुआ, [क्षणभङ्ग-संग-पतितः ] १क्षणभंगके संगमें पड़ा हुआ, [प्रायः नश्यति ] बहुलतासे नाशको प्राप्त होता है, [स्याद्वादी तु ] और स्याद्वादी तो [चिद्-आत्मना चिद्-वस्तु नित्य-उदितं परिमृशन् ] चैतन्यात्मकताके द्वारा चैतन्यवस्तुको नित्य-उदित अनुभव करता हुआ, [टंकोत्कीर्ण-घन-स्वभाव- महिम ज्ञानं भवन् ] टंकोत्कीर्णघनस्वभाव (टंकोत्कीर्ण पिंडरूप स्वभाव) जिसकी महिमा है ऐसे ज्ञानरूप वर्तता हुआ, [जीवति ] जीता है।
भावार्थ : — एकान्तवादी ज्ञेयोंके आकारानुसार ज्ञानको उत्पन्न और नष्ट होता हुआ देखकर, १क्षणभंग = क्षण-क्षणमें होता हुआ नाश; क्षणभंगुरता; अनित्यता।