(शार्दूलविक्रीडित)
टंकोत्कीर्णविशुद्धबोधविसराकारात्मतत्त्वाशया
वांछत्युच्छलदच्छचित्परिणतेर्भिन्नं पशुः किंचन ।
ज्ञानं नित्यमनित्यतापरिगमेऽप्यासादयत्युज्ज्वलं
स्याद्वादी तदनित्यतां परिमृशंश्चिद्वस्तुवृत्तिक्रमात् ।।२६१।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
परिशिष्ट
६०७
अनित्य पर्यायोंके द्वारा आत्माको सर्वथा अनित्य मानता हुआ, अपनेको नष्ट करता है; और स्याद्वादी
तो, यद्यपि ज्ञान ज्ञेयानुसार उत्पन्न-विनष्ट होता है फि र भी, चैतन्यभावका नित्य उदय अनुभव करता
हुआ जीता है — नाशको प्राप्त नहीं होता।
इसप्रकार नित्यत्वका भंग कहा है।२६०।
(अब, चौदहवें भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं : — )
श्लोकार्थ : — [पशुः ] पशु अर्थात् एकान्तवादी अज्ञानी, [टंकोत्कीर्ण विशुद्धबोध-
विसर-आकार-आत्म-तत्त्व-आशया ] टंकोत्कीर्ण विशुद्ध ज्ञानके विस्ताररूप एक-आकार
(सर्वथा नित्य) आत्मतत्त्वकी आशासे, [उच्छलत्-अच्छ-चित्परिणतेः भिन्नं किञ्चन
वाञ्छति ] उछलती हुई निर्मल चैतन्यपरिणतिसे भिन्न कुछ (आत्मतत्त्वको) चाहता है (किन्तु
ऐसा कोई आत्मतत्त्व है नहीं); [स्याद्वादी ] और स्याद्वादी तो, [चिद्-वस्तु-वृत्ति-क्रमात् तद्-
अनित्यतां परिमृशन् ] चैतन्यवस्तुकी वृत्तिके ( – परिणतिके, पर्यायके) क्रम द्वारा उसकी
अनित्यताका अनुभव करता हुआ, [नित्यम् ज्ञानं अनित्यता परिगमे अपि उज्ज्वलं आसादयति ]
नित्य ऐसे ज्ञानको अनित्यतासे व्याप्त होने पर भी उज्ज्वल ( – निर्मल) मानता है — अनुभव
करता है।
भावार्थ : — एकान्तवादी ज्ञानको सर्वथा एकाकार — नित्य प्राप्त करनेकी वाँछासे,
उत्पन्न होनेवाली और नाश होनेवाली चैतन्यपरिणतिसे पृथक् कुछ ज्ञानको चाहता है; परन्तु
परिणामके अतिरिक्त कोई पृथक् परिणामी तो नहीं होता। स्याद्वादी तो यह मानता है कि —
यद्यपि द्रव्यापेक्षासे ज्ञान नित्य है तथापि क्रमशः उत्पन्न होनेवाली और नष्ट होनेवाली
चैतन्यपरिणतिके क्रमके कारण ज्ञान अनित्य भी है; ऐसा ही वस्तुस्वभाव है।
इसप्रकार अनित्यत्वका भंग कहा गया।२६१।
‘पूर्वोक्त प्रकारसे अनेकांत, अज्ञानसे मूढ़ जीवोंको ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व प्रसिद्ध कर देता
है — समझा देता है’ इस अर्थका काव्य कहा जाता है : —