(अनुष्टुभ्)
इत्यज्ञानविमूढानां ज्ञानमात्रं प्रसाधयन् ।
आत्मतत्त्वमनेकान्तः स्वयमेवानुभूयते ।।२६२।।
(अनुष्टुभ्)
एवं तत्त्वव्यवस्थित्या स्वं व्यवस्थापयन् स्वयम् ।
अलंघ्यं शासनं जैनमनेकान्तो व्यवस्थितः ।।२६३।।
६०८
समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
श्लोकार्थ : — [इति ] इसप्रकार [अनेकान्तः ] अनेकान्त अर्थात् स्याद्वाद [अज्ञान-
विमूढानां ज्ञानमात्रं आत्मतत्त्वम् प्रसाधयन् ] अज्ञानमूढ़ प्राणियोंको ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व प्रसिद्ध करता
हुआ, [स्वयमेव अनुभूयते ] स्वयमेव अनुभवमें आता है।
भावार्थ : — ज्ञानमात्र आत्मवस्तु अनेकान्तमय है। परन्तु अनादि कालसे प्राणी अपने आप
अथवा एकान्तवादका उपदेश सुनकर ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व सम्बन्धी अनेक प्रकारसे पक्षपात करके
ज्ञानमात्र आत्मतत्त्वका नाश करते हैं। उनको (अज्ञानी जीवोंको) स्याद्वाद ज्ञानमात्र आत्मतत्त्वका
अनेकान्तस्वरूपपना प्रगट करता है — समझाता है। यदि अपने आत्माकी ओर दृष्टिपात करके —
अनुभव करके देखा जाये तो (स्याद्वादके उपदेशानुसार) ज्ञानमात्र आत्मवस्तु अपने आप अनेक
धर्मयुक्त प्रत्यक्ष अनुभवगोचर होती है। इसलिये हे प्रवीण पुरुषो ! तुम ज्ञानको तत्स्वरूप, अतत्स्वरूप,
एकस्वरूप, अनेकस्वरूप, अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसे सत्स्वरूप, परके द्रव्य-क्षेत्र-काल-
भावसे असत्स्वरूप, नित्यस्वरूप, अनित्यस्वरूप इत्यादि अनेक धर्मस्वरूप प्रत्यक्ष अनुभवगोचर
करके प्रतीतिमें लाओ। यही सम्यग्ज्ञान है। सर्वथा एकान्त मानना वह मिथ्याज्ञान है।२६२।
‘पूर्वोक्त प्रकारसे वस्तुका स्वरूप अनेकान्तमय होनेसे अनेकान्त अर्थात् स्याद्वाद सिद्ध
हुआ’ इस अर्थका काव्य अब कहा जाता है : —
श्लोकार्थ : — [एवं ] इसप्रकार [अनेकान्तः ] अनेकान्त — [जैनम् अलङ्घयं शासनम् ]
कि जो जिनदेवका अलंघ्य (किसीसे तोड़ा न जाय ऐसा) शासन है वह — [तत्त्व-व्यवस्थित्या ]
वस्तुके यथार्थ स्वरूपकी व्यवस्थिति (व्यवस्था) द्वारा [स्वयम् स्वं व्यवस्थापयन् ] स्वयं अपने
आपको स्थापित करता हुआ [व्यवस्थितः ] स्थित हुआ — निश्चित हुआ — सिद्ध हुआ।
भावार्थ : — अनेकान्त अर्थात् स्याद्वाद, वस्तुस्वरूपको यथावत् स्थापित करता हुआ,
स्वतः सिद्ध हो गया। वह अनेकान्त ही निर्बाध जिनमत है और यथार्थ वस्तुस्थितिको कहनेवाला
है। कहीं किसीने असत् कल्पनासे वचनमात्र प्रलाप नहीं किया है। इसलिये हे निपुण पुरुषों !
भलीभांति विचार करके प्रत्यक्ष अनुमान-प्रमाणसे अनुभव कर देखो।२६३।