नन्वनेकान्तमयस्यापि किमर्थमत्रात्मनो ज्ञानमात्रतया व्यपदेशः ? लक्षणप्रसिद्धया लक्ष्यप्रसिद्धयर्थम् । आत्मनो हि ज्ञानं लक्षणं, तदसाधारणगुणत्वात् । तेन ज्ञानप्रसिद्धया तल्लक्ष्यस्यात्मनः प्रसिद्धिः ।
ननु किमनया लक्षणप्रसिद्धया, लक्ष्यमेव प्रसाधनीयम् । नाप्रसिद्धलक्षणस्य लक्ष्यप्रसिद्धिः, प्रसिद्धलक्षणस्यैव तत्प्रसिद्धेः ।
ननु किं तल्लक्ष्यं यज्ज्ञानप्रसिद्धया ततो भिन्नं प्रसिध्यति ? न ज्ञानाद्भिन्नं लक्ष्यं, ज्ञानात्मनोर्द्रव्यत्वेनाभेदात् ।
(कथन, नाम) किया जाता है ? (यद्यपि आत्मा अनन्त धर्मयुक्त है तथापि उसे ज्ञानरूपसे क्यों कहा जाता है ? ज्ञानमात्र कहनेसे तो अन्य धर्मोंका निषेध समझा जाता है।)
(उत्तर : — ) लक्षणकी प्रसिद्धिके द्वारा लक्ष्यकी प्रसिद्धि करनेके लिये आत्माका ज्ञानमात्ररूपसे व्यपदेश किया जाता है। आत्माका ज्ञान लक्षण है, क्योंकि ज्ञान आत्माका असाधारण गुण है ( – अन्य द्रव्योंमें ज्ञानगुण नहीं है)। इसलिये ज्ञानकी प्रसिद्धिके द्वारा उसके लक्ष्यकी — आत्माकी — प्रसिद्धि होती है।
प्रश्न : — इस लक्षणकी प्रसिद्धिसे क्या प्रयोजन है ? मात्र लक्ष्य ही प्रसाध्य अर्थात् प्रसिद्धि करने योग्य है। (इसलिये लक्षणको प्रसिद्धि किये बिना मात्र लक्ष्यको ही — आत्माको ही — प्रसिद्ध क्यों नहीं करते ?)
(उत्तर : — ) जिसे लक्षण अप्रसिद्ध हो उसे (अर्थात् जो लक्षणको नहीं जानता ऐसे अज्ञानी जनको) लक्ष्यकी प्रसिद्धि नहीं होती। जिसे लक्षण प्रसिद्ध होता है उसीको लक्ष्यकी प्रसिद्धि होती है। (इसलिये अज्ञानीको पहले लक्षण बतलाते हैं तब वह लक्ष्यको ग्रहण कर सकता है।)
(प्रश्न : — ) ऐसा कौनसा लक्ष्य है कि जो ज्ञानकी प्रसिद्धिके द्वारा उससे ( – ज्ञानसे) भिन्न प्रसिद्ध होता है ?