यो ज्ञानमात्रमयतां न जहाति भावः ।
तद्द्रव्यपर्ययमयं चिदिहास्ति वस्तु ।।२६४।।
ज्ञानीभवन्ति जिननीतिमलंघयन्तः ।।२६५।।
‘इत्यादि अनेक शक्तियोंसे युक्त आत्मा है तथापि वह ज्ञानमात्रताको नहीं छोड़ता’ — इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [इत्यादि-अनेक-निज-शक्ति-सुनिर्भरः अपि ] इत्यादि ( – पूर्व कथित ४७ शक्तियाँ इत्यादि) अनेक निज शक्तियोंसे भलीभाँति परिपूर्ण होने पर भी [यः भावः ज्ञानमात्रमयतां न जहाति ] जो भाव ज्ञानमात्रमयताको नहीं छोड़ता, [तद् ] ऐसा वह, [एवं क्रम-अक्रम-विवर्ति- विवर्त-चित्रम् ] पूर्वोक्त प्रकारसे क्रमरूप और अक्रमरूपसे वर्तमान विवर्त्तसे ( – रूपान्तरसे, परिणमनसे) अनेक प्रकारका, [द्रव्य-पर्ययमयं ] द्रव्यपर्यायमय [चिद् ] चैतन्य (अर्थात् ऐसा वह चैतन्य भाव – आत्मा) [इह ] इस लोकमें [वस्तु अस्ति ] वस्तु है।
भावार्थ : — कोई यह समझ सकता है कि आत्माको ज्ञानमात्र कहा है, इसलिये वह एकस्वरूप ही होगा। किन्तु ऐसा नहीं है। वस्तुका स्वरूप द्रव्यपर्यायमय है। चैतन्य भी वस्तु है, द्रव्यपर्यायमय है। वह चैतन्य अर्थात् आत्मा अनन्त शक्तियोंसे परिपूर्ण है और क्रमरूप तथा अक्रमरूप अनेक प्रकारके परिणामोंके विकारोंके समूहरूप अनेकाकार होता है फि र भी ज्ञानको — जो कि असाधारणभाव है उसे — नहीं छोड़ता, उसकी समस्त अवस्थाएं — परिणाम — पर्याय ज्ञानमय ही हैं।२६४।
‘इस अनेकस्वरूप — अनेकान्तमय — वस्तुको जो जानते हैं, श्रद्धा करते हैं और अनुभव करते हैं, वे ज्ञानस्वरूप होते हैं’ — इस आशयका, स्याद्वादका फल बतलानेवाला काव्य अब कहते हैं —
श्लोकार्थ : — [इति वस्तु-तत्त्व-व्यवस्थितिम् नैकान्त-सङ्गत-दृशा स्वयमेव प्रविलोकयन्तः ] ऐसी (अनेकान्तात्मक) वस्तुतत्त्वकी व्यवस्थितिको अनेकान्त-संगत