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साधक जीवकी दृष्टि
अध्यात्ममें सदा निश्चयनय ही मुख्य है; उसीके आश्रयसे धर्म होता है। शास्त्रोंमें
जहाँ विकारी पर्यायोंका व्यवहारनयसे कथन किया जाये वहाँ भी निश्चयनयको ही मुख्य
और व्यवहारनयको गौण करनेका आशय है — ऐसा समझना; क्योंकि पुरुषार्थ द्वारा
अपनेमें शुद्धपर्याय प्रगट करने अर्थात् विकारी पर्याय टालनेके लिये सदा निश्चयनय ही
आदरणीय है; उस समय दोनों नयोंका ज्ञान होता है परंतु धर्म प्रगट करनेके लिये
दोनों नय कभी आदरणीय नहीं हैं। व्यवहारनयके आश्रयसे कभी धर्म अंशतः भी नहीं
होता, परंतु उसके आश्रयसे तो राग-द्वेषके विकल्प ही उठते हैं।
छहों द्रव्य, उनके गुण और उनकी पर्यायोंके स्वरूपका ज्ञान करानेके लिए कभी
निश्चयनयकी मुख्यता और व्यवहारनयकी गौणता रखकर कथन किया जाता है, और
कभी व्यवहारनयको मुख्य करके तथा निश्चयनयको गौण रखकर कथन किया जाता
है; स्वयं विचार करे उसमें भी कभी निश्चयनयकी मुख्यता और कभी व्यवहारनयकी
मुख्यता की जाती है; अध्यात्मशास्त्रमें भी जीवकी विकारी पर्याय जीव स्वयं करता है
इसलिये होती है और वह जीवका अनन्य परिणाम है – ऐसा व्यवहारनयसे कहनेमें
– समझानेमें आता है; परंतु वहाँ प्रत्येक समय निश्चयनय एक ही मुख्य तथा आदरणीय
है ऐसा ज्ञानियोंका कथन है। शुद्धता प्रगट करनेके लिए कभी निश्चयनय आदरणीय
है और कभी व्यवहारनय आदरणीय है – ऐसा मानना वह भूल है। तीनों काल अकेले
निश्चयनयके आश्रयसे ही धर्म प्रगट होता है ऐसा समझना।
साधक जीव प्रारम्भसे अन्त तक निश्चयकी ही मुख्यता रखकर व्यवहारको गौण
ही करते जाते हैं, इसलिए साधकदशामें निश्चयकी मुख्यताके बलसे साधकको शुद्धताकी
वृद्धि ही होती जाती है और अशुद्धता टलती ही जाती है। इस प्रकार निश्चयकी
मुख्यताके पूर्ण बलसे केवलज्ञान होने पर वहाँ मुख्य-गौणपना नहीं होता और नय भी
नहीं होते।
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